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"कैवल्य" पर टिप्पणी

कि, यदि किसी गोरे यात्रीको अन्य डिब्बेमें स्थान न मिले और वह रंगदार यात्रियोंके डिब्बे में— यद्यपि वह भलीभाँति जानता है कि यह डिब्बा रंगदार यात्रियोंके लिए ही है—दी गई जगहका लाभ उठाये, तो किसी प्रकारको शिकायतका मौका न रहे।

स्पष्टत: यह मामला कानून बनानेके बजाय रेलवे व्यवस्थासे अधिक सम्बन्धित है। रेलवे खुद ही इतना प्रबन्ध कर सकती है। श्री सॉलोमनके प्रति आदर रखते हुए भी, हमारा खयाल है, इस तरहका प्रस्ताव पेश करने में उन्होंने सदनकी प्रतिष्ठाका खयाल नहीं रखा। ऐसा प्रतीत होता है कि इस कार्यमें एक दोषको दूर करने अथवा एक सार्वजनिक महत्त्वके प्रश्नकी ओर सरकारका ध्यान प्रमुख रूपसे खींचनेकी इच्छा उतनी नहीं थी, जितनी कि लोगोंके दुर्भावको तुष्ट करनेकी अभिरुचि। इसीलिए अगर डॉ॰ टर्नर जैसे लोगोंको प्रस्तावकी सीमाके बाहर जाकर भी उनका विरोध करना पड़ा तो इसके लिए जिम्मेदार श्री सॉलोमन ही हैं। हाँ, अप्रत्यक्ष रूपमें इस विवादसे एक प्रकारका लाभ ही हुआ। इससे प्रकट हो गया कि सर रिचर्ड सॉलोमन रंगदार जातियोंके एक मित्र और हितैषी है जो चाहते हैं कि आदमी-आदमीके बीच न्यायका व्यवहार होना चाहिए, और यह भी कि लोक-भावना चाहे कितनी ही प्रबल हो, अगर वह न्यायकी मूल भावनाके विपरीत होगी तो भी वे पथसे विचलित नहीं होंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३१-१२-१९०३

७४. "कैवल्य" पर टिप्पणी

[१९०३ ? १९०४][१]

ईसाई पादरियोंने उतावलेपनमें "कैवल्य"में[२] हिन्दुओंके महान विश्वासका अर्थ "शून्य"में विश्वास किया है। वे कहते हैं कि "हिन्दुओंके विश्वासके अनुसार शून्यमें विलीन हो जाना—अस्तित्व खो देना—सबसे बड़ी चीज है।" इस भाष्यने ईसाई और हिन्दू धर्मोंके बीच एक गहरी खाईका निर्माण कर दिया है जिससे दोनोंकी हानि हुई है।

संस्कृतके जिस शब्दका अनुवाद "शून्य" किया गया है उसके अर्थके सम्बन्धमें मतैक्य न होनेके कारण यह सारी भ्रान्ति उत्पन्न हुई है। साधारण तौरपर वह जिस अर्थकी व्यंजना करता है सो इस मान्यताके कारण कि हम इस समय जो है वही सब-कुछ है, और तब हिन्दू दार्शनिक कहता है, "शून्य मेरे लेखे सब-कुछ है; क्योंकि तुम जिसे सब-कुछ कहते हो वह तो प्रत्यक्ष ही नश्वर है।" (क्या शरीर और इन्द्रियोंका नाश नहीं होगा और इसी तरह दूसरी सब वस्तुओंका भी जिन्हें हम देखते या अनुभव करते हैं?) शून्यको इस तरह देखें तो उससे वही विचार व्यक्त होता है जो अन्तिम मोक्षसे होता है—अर्थात् ईश्वरसे एकरूप होना। यह ईश्वर स्पेन्सरका महान "अज्ञेय" तत्व है; किन्तु वह सापेक्ष अज्ञेय है। अर्थात् वह स्पेन्सर द्वारा वर्णित ज्ञानके साधारण साधनोंसे ज्ञेय नहीं है। इतनेपर भी यदि आप निरी साधारण बुद्धिसे परे किसी उच्चतर साधन

  1. इस प्रलेखकी ठीक तारीख नहीं मिलती। मूल पत्र डर्बनके आवासी मजिस्ट्रेट श्री जेम्स स्टुअर्टके संग्रहमें गांधीजीके "पत्र: जेम्स स्टुअर्टको", जनवरी १९, १९०५ के साथ प्राप्त हुआ है और अब कुमारी केली केम्बेलके पास है। इसपर श्री स्टुअर्ट की लिखी यह सूचना है: "यह श्री मो॰ क॰ गांधीका लिखा हुआ है। मुझे १९०३-४ के लगभग डर्बनमें दिया गया था।" इस कालमें गांधीजीने हिन्दू धर्मपर थियोसॉफ़िस्टोंके साथ बहुत चर्चाएँ की थीं। देखिए आत्मकथा, भाग ४, अध्याय ५।
  2. अंग्रेजीका "इटर्नल ब्लिस" लिखते हुए गांधीजीके सामने कैवल्य, नित्यानन्द, मोक्ष अथवा निर्वाण कौन-सा शब्द था, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।