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पिछले सालका सिंहावलोकन

कर दिया। जोहानिसबर्गके ब्रिटिश भारतीय संघने लॉर्ड मिलनरकी शरण ली,[१] परन्तु उसे लॉर्ड महोदयसे जबानी सहानुभूतिके सिवा कुछ नहीं मिला। उन्होंने भारतीय समाजको जोरदार सलाह दी कि वह ३ पौंडी करकी अदायगीका विरोध न करे; और यह वचन भी दिया कि परवाने आदिके जो मामले उनकी निगाहमें लाये गये हैं, उनकी वे सावधानीसे जाँच करेंगे। परमश्रेष्ठने यह महत्त्वपूर्ण बयान दिया कि बाजार-सूचना सिर्फ एक अस्थायी उपाय है और निकट भविष्यमें, कदाचित् विधान परिषदके तत्कालीन अधिवेशनमें ही, १८८५ के कानून ३ के स्थानपर एक विधेयक पेश किया जायेगा।

आज स्थिति पहलेसे बहुत अच्छी नहीं है, यद्यपि कुछ बातोंमें, निश्चय ही, प्रगति बताई जा सकती है। बाजार-सूचना पर अब भी अमल हो रहा है और उसके द्वारा सर्वनाश होनेसे बचनेके लिए ब्रिटिश भारतीय संघको अपने सारे साधन काममें लाने पड़े हैं। व्यावहारिक रूपमें वह सूचना दुविधाजनक पाई गई है। परवाना-अधिकारी उसके अर्थके बारेमें निश्चित निर्णय हमेशा नहीं दे सके हैं। नतीजा यह हुआ कि निहित स्वार्थोकी रक्षाके लिए समाजको भगीरथ-प्रयत्न करने पड़े। और तो भी आज कोई यह नहीं कह सकता कि तमाम मौजूदा परवानोंको स्वीकार किया जायेगा या नहीं। ट्रान्सवालके उपनिवेश-सचिवने सूचनामें ऐसा संशोधन करनेका प्रयत्न किया, जिससे उन भारतीयोंके हितोंकी रक्षा हो सके जो लड़ाईके पहले ब्रिटिश हस्तक्षेपके कारण परवानोंके बिना व्यापार करते थे। इस मामले में अन्तमें समझौता हो गया। सरकारने सर जॉर्ज फेरारका वह संशोधन स्वीकार कर लिया है जिसमें ऐसे ब्रिटिश भारतीयोंके दावोंकी जाँच करनेके लिए आयोग (कमीशन) नियुक्त करने की बात कही गई है और केपके प्रवासीअधिनियमके ढंगपर कानून पेश करनेकी सरकारसे प्रार्थना की गई है। अभी यह कहना सम्भव नहीं कि इस संशोधनका असर क्या होगा। हमने उसे सद्भावनाओंका प्रमाण समझकर मंजूर कर लिया है और, इसलिए, उसका एक ही अर्थ लगाया है, जो सम्भव है और जो वर्तमान सरकारकी घोषणाओंके भी अनुकूल है। वह अर्थ यह है कि, जो लोग लड़ाईसे पहले व्यापार कर रहे थे उन सबको बाजारोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने दिये जायेंगे और केप जैसा कानून बननेका अर्थ यह होगा कि मौजूदा एशियाई-विरोधी कानून बिलकुल उठा दिये जायेंगे और जिस भारके नीचे भारतीय पहले से ही दबे हुए हैं, उसमें कोई वृद्धि नहीं होगी। एक बात बिलकुल साफ हो जानी चाहिए कि ब्रिटिश सरकारके राज्यमें पुरानी हुकूमतको अपेक्षा स्थिति अधिक असह्य न बना दी जाये—भले ही इसका हेतु इतना ही क्यों न हो कि, लड़ाई छेड़नेके जो कारण जाहिरा तौरपर बताये गये थे उनमें से एक कारण ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंपर मढ़ी हुई निर्योग्यताएँ भी था। इस वर्ष में दो निर्णयात्मक सुधार हुए हैं। परवाना विभाग फिर परवानोंके मुख्य सचिवको सौंप दिया गया है और हमें जो समाचार मिले हैं उनसे हम कृतज्ञतापूर्वक कहते हैं कि भ्रष्टाचार बिलकुल मिट गया है और वास्तविक शरणाथियोंको बेजा देरके बिना परवाने मिल जाते हैं। एशियाई दफ्तर अब भी हैं। हमें पता नहीं, क्यों है; परन्तु हमें मालूम हुआ है कि "एशियाइयोंके संरक्षक" के रूपमें श्री चैमने भारतीय समाजके हितैषी और हमदर्द है।

जोहानिसबर्गकी बस्ती भारतीयोंके हाथसे निकल गई है। यदि ऐसा न होता तो भी कोई भारी मुसीबत न होती, क्योंकि अकेले जोहानिसबर्ग में भारतीयोंको उस छोटेसे क्षेत्रके भीतर ९९ वर्षके पट्टेका अधिकार दिया गया था और अब वहाँ निवासियोंको भरोसा नहीं है कि उन्हें वही सुविधाएँ दी जायेंगी या नहीं; यह भी भरोसा उन्हें नहीं है कि नया स्थान

  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३२४।