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पिछले सालका सिंहावलोकन

महत्त्वकी बात नहीं है। असलमें दुखती हुई रग तो विक्रेता-परवाना अधिनियम है। डर्बन नगरपरिषद और नेटालके अनेक स्थानिक निकायोंकी हलचलोंसे इस भयको खासा आधार मिल जाता है कि, यह कानून सख्तीसे लागू किया जायेगा। अभी नगर परिषदें ही अपने परवानाअधिकारियोंके निर्णयके खिलाफ की गई अपीलोंको सुननेवाली सत्ता है। जबतक सर्वोच्च न्यायालय इन परिषदोंके निर्णयोंके खिलाफ अपील सुननेकी सत्तासे वंचित रखा जायेगा तबतक यह कानून कष्टोंका प्रबल कारण बना रहेगा। लेडीस्मिथके परवाना अधिकारीने भारतीयोंको सूचना भेजी है कि वे जबतक दुकानें बन्द करनेके मामूली वक्त की पाबन्दीके लिए रजामन्द नहीं होते, उनके परवाने फिर जारी नहीं किये जायेंगे। हमने एकाधिक बार यह आशा व्यक्त की है कि लेडीस्मिथके ब्रिटिश भारतीय व्यापारी इस सम्बन्धमें परवाना-अधिकारीके साथ कोई आपसी समझौता कर सकेंगे, हमारी समझमें यह बहुत ही नाजुक और ऐसा मामला है, जिसपर यदि निर्णय लेने में कोई गलती हो गई तो फिर शिकायतें दूर कराना बहत कठिन हो।

लगता है डर्बनमें बाजारों या बस्तियोंसे सम्बन्धित श्री एलिसके प्रस्तावका मर्दा दफन हो चुका है, किन्तु उसकी दुर्गन्ध नाकमें भर गई है और कह नहीं सकते कब उसे फिर उखाड़नेके प्रयत्न किये जायें। यह प्रस्ताव ट्रान्सवाल-बाजार-सूचनाके प्रकाशनके तुरन्त बाद आया था, और जैसा कि हमने उस समय स्पष्ट किया था, उसे सुयोग्य महापौर महाशयने अशोभनीय जल्दबाजीमें पेश किया था। प्रस्तावकी[१] स्याही कागजपर सूखने भी नहीं पाई थी कि ट्रान्सवालसे खबर मिली कि बाजार-सूचना केवल एक अस्थायी विनियम है; और उसे उपनिवेशके स्थायी कानूनोंमें शामिल करनेका कोई इरादा नहीं है।

यह देखते हुए कि नेटालमें हजारों भारतीय अपने कुटुम्बोंके साथ रहते हैं और उन्हें अपने बच्चे पढ़ाने-लिखाने है, यहाँ भारतीयोंकी शिक्षाका प्रश्न गम्भीर है। सरकार भारतीयोंकी शिक्षाका काफी अच्छा प्रबन्ध करनेको कितनी भी तैयार क्यों न हो, उपनिवेशकी लोकशालाओं (पब्लिक स्कूलों) के द्वार भारतीय विद्यार्थियोंके लिए बन्दकरके उसने भारतीय समाजको बहुत बड़े घाटेमें डाल दिया है। डर्बनके सरकारी मदरसेमें जो आखिरी तीन भारतीय छात्राएँ पढ़ रही थीं, वे श्रेयके साथ उत्तीर्ण होकर निकल आई हैं। अब दुर्भाग्यसे उनकी दूसरी बहनोंको वैसे शिक्षणकी सुविधा नहीं रही। ये तीनों लड़कियाँ ठीक भारतीय कुटुम्बोंकी हैं। इनका पालन-पोषण बहुत अच्छी तरह हुआ है और इनकी शिक्षिकाएँ इन्हें खूब चाहती थीं। ये हमेशा पहली पंक्तिमें रहीं और श्रम, सत्य और शीलकी दृष्टिसे इनका चरित्र बहुत ऊँचा था। यह सोचकर दुःख होता है कि अन्य भारतीय लड़कियाँ जो ऐसी ही सुविधाएँ मिलने पर इन्हीं जैसा करतब कर दिखातीं, अब केवल अपनी चमड़ीके रंगके कारण ऐसे अवसरसे वंचित हैं।

थोड़ी-बहुत चैन मिल जानेसे भारतीय समाज नेटालमें शिक्षा सुधारका काम हाथमें ले सका है। इस सिलसिलेमें हबीबी मदरसा उल्लेखनीय है। यह उन्नतिशील संस्था है और सूफी साहबकी देखरेखमें इसकी व्यवस्था सुचारु है। हमारी इच्छा तो यही है कि ऐसी ही और भी संस्थायें उपनिवेशमें जहाँ-तहाँ हों। रेवरेंड स्मिथने अभी-अभी भारतीय-शिक्षकोंके लिए एक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोला है। अच्छा प्रबन्ध होने और प्रोत्साहन मिलनेपर यह उपनि नैतिक और शैक्षणिक प्रभावका बहुत बड़ा केन्द्र बन सकता है।

और भी बहुतसे ऐसे सुधार हैं, जिन्हें भारतीय समाज बखूबी हाथमें ले सकता है। हम आशा करें कि पिछले वर्षकी अवनतिके स्थानपर इस वर्ष उन्नति होगी और हमारे कुछ उदारचेता भारतीय व्यापारी इनमें से कुछ कामोंको पूरा करेंगे।

  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३४३।