अपनी शानके खिलाफ समझने की आदत हो जायेगी, और वे यह काम रंगदार लोगोंसे लेनेके आदी हो जायेंगे, तब वे इसके विपरीत करनेको, और हाथका काम खुद करनेको, राजी नहीं होंगे। सर पर्सीने[१] अपने श्रोताओंसे कहा कि वे ट्रान्सवालमें गिरमिटिया रंगदार मजदूरोंको न आने देनेका परिणाम सोचें। उन्होंने, अपने खयालके अनुसार, बहुत अन्धकारपूर्ण चित्र खींचते हुए कहा कि यदि ऐसा हुआ तो विभिन्न नगरपालिकाओंने जो जबरदस्त काम हाथमें लिये हैं उनमें से अधिकतर उन्हें छोड़ देने पड़ेंगे। हम साफ-साफ स्वीकार करें कि, अगर ट्रान्सवालके लोग केवल भविष्यको सँभालें तो, भले ही यह शुरूमें कठोर दिखाई दे, हमें इन बड़े कामोंको बन्द कर देनेमें कोई असाधारणता दिखाई नहीं देती। यह बिलकुल ठीक है कि जब यहाँ ब्रिटिश सत्ता आई तब जो बहुतसी अतिशयोक्तिपूर्ण बातें सोची गई थीं उनकी तरतीब बदलनी पड़ेगी; परन्तु वह अच्छा ही होगा। हमें खेद है कि लम्बी और उबा देनेवाली सारी बहसमें सर जॉर्जके पाबन्दियों सम्बन्धी प्रस्तावकी पिछली धाराके विरुद्ध आवाज उठानेवाला एक भी वक्ता नहीं था। यह देखकर निराशा होती है कि तेजस्वी लोगोंके उस समूहमें किसीने भी उसपर चीनियोंके दृष्टिकोणसे विचार करना ज़रूरी नहीं समझा। सब सहमत थे कि चीनी लोग परिश्रमी, समझदार और योग्य हैं, फिर भी किसीको इसमें असंगतता नहीं दिखाई दी कि उनके साथ निरे गुलामोंका-सा बरताव किया जाये, और खानोंके विकासके लिए जितनी थोड़ी अक्लकी ज़रूरत हो उसके सिवा जबरदस्ती उनको अपनी समझ और योग्यतासे काम न लेने दिया जाये। सर रिचर्डका[२] खयाल था कि अगर किसी काफिरको सरकारी हस्तक्षेप द्वारा या कर लगाकर काम करनेपर मजबूर किया जायेगा तो वह जबरिया काम होगा और उसे ब्रिटिश सरकार सहन नहीं कर सकेगी। यदि आप एक आदमीको चूस लें, उसकी हलचलोंपर पाबन्दी लगायें और ज्यों ही उसका गिरमिट पूरा हो उसे निकाल बाहर करें तो क्या वह भी ऐसी ही बात नहीं है? किन्तु इस मौकेपर दलीलें देनेसे कोई फायदा नहीं। पासा पड़ चुका है। जल्दी ही हमारे सामने अध्यादेशका मसविदा आयेगा, और शायद कुछ ही महीनोंमें हजारों गिरमिटिया मजदूर भी। ट्रान्सवाल जो महत्त्वपूर्ण कदम उठानेवाला है उसका परिणाम समय बतायेगा।
इंडियन ओपिनियन, ७-१-१९०४