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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


हमें आशा है, भारतमें लोकमतके नेता और इंग्लैंडमें भारतवासियोंके हितैषी इसका ध्यान रखेंगे। इससे जाहिर होता है कि ट्रान्सवाल-सरकार यह नहीं मानती कि भारत-सरकार अध्यादेशके मसविदेकी धाराओंको चुपचाप पी लेगी, लेकिन दुर्भाग्यवश इससे यह भी प्रकट होता है कि उसे आशा है, जल्दी ही भारत सरकार अनिवार्य वापसीकी शर्तपर भारतीय गिरमिटिया मजदूरोंको लानेकी बात मंजूर कर लेगी। हमने अनेक बार अपना यह मत प्रकट किया है कि हम स्वतंत्र भारतीयोंकी स्वतन्त्रताके बदले गिरमिटिया भारतीयोंकी लगभग गुलामों जैसी हालत मंजूर नहीं करेंगे, और यह ध्यानमें रखना चाहिए कि ट्रान्सवाल-सरकारने अपने व्यवहारमें अभीतक भारतीयोंके साथ अत्यन्त "प्रारम्भिक न्याय" (ये श्री डंकनके शब्द हैं) करनेकी भी कोई इच्छा प्रकट नहीं की है। डूबते हुए आदमीकी तरह ट्रान्सवालके लोग उसी तिनकेका सहारा लेनेपर उतारू है जो उपनिवेशको दिवालियापनसे बचा सके; और अगर खानोंके भौतिक विकासकी और इस प्रकार उपनिवेशके भौतिक वैभवकी रक्षा हो सके तो वे कितने ही नीचे उतर आनेको उद्यत हैं। हम इतनी ही आशा रख सकते हैं कि ट्रान्सवालके लोग कुछ भी चाहें, चीनी जनता या चीन सरकार इस प्रस्तावित अध्यादेशके साथ कोई वास्ता रखनसे इनकार करके और भारत-सरकार अपने मूल रवैयेपर कायम रहकर ट्रान्सवालवालोंकी, उनकी हर कोशिशके बावजूद, कोई सहायता नहीं करेगी तो इस प्रकार उस समाजको (हम अत्यन्त आदरके साथ कहते हैं) ऐसी बातसे बचायेगी जो मानवताके विरुद्ध अपराध है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-१-१९०४

७८. नव वर्षका उपहार

जब बाजार-सूचनाके संशोधनमें अपना प्रस्ताव पेश करते समय ट्रान्सवालके उपनिवेश-सचिवने अपना बहुत सहानुभूतिपूर्ण भाषण दिया, तब हमें उसमें भारतीय व्यापारियोंके शुभ भविष्यके लक्षण दिखाई दिये थे। हमने निष्कर्ष निकाला था कि सर जॉर्ज फेरारका प्रस्ताव मान लेना बहुत अच्छा हल है। पाठकोंको स्मरण होगा कि सर जॉर्जका प्रस्ताव यह था कि, भारतीय व्यापारियोंके निहित स्वार्थोकी जाँचके लिए एक आयोग नियुक्त किया जाये और जो लोग लड़ाईसे पहले सचमुच व्यापार कर रहे थे उन सबके परवाने फिलहाल नये कर दिये जायें। लेकिन हुआ यह है कि सरकारने ट्रान्सवालके विभिन्न भागोंमें आय-विभागके अफसरोंको हिदायत दी है कि फिलहाल केवल उन्हींको परवाने दिये जायें जो यह विश्वास करा सकें कि वे लड़ाईके पहले परवानेसे, या परवानेके बिना, व्यापार कर रहे थे। उपनिवेश-सचिवका मूल संशोधन यह था कि जो आय वसूल करनेवाले अफसरोंको इस तरहका विश्वास करा सकें, उन्हें बिना शर्त परवाने दे दिये जायें और यद्यपि उपनिवेश-सचिवने अपने भाषणमें अपनी स्थितिका पराक्रमके साथ बचाव किया, और सर जॉर्जका प्रस्ताव इसलिए मान लिया कि उसमें संशोधनकी भावनाका समावेश हो जाता था, फिर भी जिन हिदायतोंका हमने जिक्र किया है वे स्पष्ट ही, इस नीतिसे अलग हैं। आय वसूलकरनेवाले अफसरोंके सामने सबूत अब भी पेश करना होगा—मानो मूल संशोधन इस अन्तरके साथ स्वीकृत हो गया हो कि जहाँ संशोधनके अनुसार बिना शर्त परवाने दिये जाते, वहाँ इन हिदायतोंके अनुसार केवल अस्थायी परवाने दिये जायेंगे। इस प्रकार कथनी और करनीके बीचमें जबरदस्त खाई है। उपनिवेश-सचिवने जो आशाएँ दिलाई थीं वे, ज्यों ही उनके शब्दोंको