कार्यान्वित करनेकी नौबत आई, चूर-चूर हो गई। भारतीयोंने पहले ही एक बार अपने पहलेके व्यापारका सबूत दे दिया है; क्योंकि परिपाटी यह थी कि एशियाइयोंके पर्यवेक्षक (सुपरवाइजर ऑफ एशियाटिक्स) की सिफारिशके बिना किसीको व्यापार करनेका परवाना नहीं दिया जाता था। शर्तों के खिलाफ भारतीय रोये-चिल्लाये, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। दुनिया भरके हलफनामे पर्यवेक्षकोंके पास ले जाने पड़ते थे और वे परवानोंके प्राथियोंके दावोंकी परी जाँच करके सिर्फ उन्हींको परवाने देनेकी सिफारिश करते थे जो उनकी रायमें यद्धसे पहले व्यापार करते थे, या दूसरी तरह परवाने प्राप्त करने के पात्र थे। अब सरकार द्वारा नियुक्त अफसरोंकी ये तमाम सिफारिशें निकम्मी समझी जायेंगी। आय वसूल करने वाले अफसरोंके सामने फिर सबूत पेश करने होंगे और फिर भी मानो इसलिए कि अत्याचार अधूरे रह गये थे, प्रत्येक भारतीय परवानेदारको एक आयोग (कमिशन) के सामने घसीटा जायेगा, वहाँ उसे फिर प्रमाणोंकी अग्नि-परीक्षामें से गुजरना होगा और तब भी भगवान जाने उसका परवाना बहाल होगा या नहीं। सरकारके इस निर्णयका परिणाम यह है कि भारतीय समाजको हलफनामों और दूसरे दस्तावेजों पर सैकड़ों पौंड खर्च करने होंगे, तब कहीं अस्थायी परवाने जारी किये जायेंगे। जो यह सिद्ध नहीं कर सकेंगे कि वे लड़ाईके पहले व्यापार करते थे, उन्हें अपनी दूकानें बन्द कर देनी होगी। इसकी कोई परवाह नहीं की जायेगी कि उन्हें एशियाई अधिकारियोंकी सिफारिशपर गत वर्ष या उससे पहलेके वर्षमें बिना शर्त परवाने मिले थे।
ट्रान्सवालमें उनकी यह दशा हो गई है। इस दुःखद स्थितिके कारण ढूंढ़ने के लिए दूर जानेकी जरूरत नहीं है। श्री बोर्कने स्पष्ट कर दिया है कि यूरोपीय व्यापारी भारतीय स्पर्धा लेशमात्र भी नहीं चाहते—और श्री बोर्क धनिक वर्ग के प्रतिनिधि हैं, और वे ३,००,००,००० पौंडकी उस युद्ध-सहायताको वापस लेनेका प्रस्ताव करनेवाले भी हैं, जिसकी श्री चेम्बरलेनके आगमनपर संसारके सामने इतना ढिंढोरा पीटकर घोषणा की गई थी। शान्तिकी घोषणा होनेपर व्यापारमें जो तेजी आई, सरकार उसके बहावमें, साधारण लोगोंकी तरह बह गई और उसने भारी कर्ज करके ऐसा काम हाथमें ले लिया है, जिसे वह धनके बिना जारी नहीं रख सकती। इसलिए वह उन सब लोगोंको, जिनकी बात ऐसे मामलोंमें सुनी जानेकी सम्भावना हो, राजी करना चाहती है—भले ही ऐसा करनेसे स्पष्ट वचन-भंग और निर्दोष नागरिकोंकी बरबादी होती हो और उसके अपने ही अधिकारियोंके दिये हुए दस्तावेज रद हो जाते हों। सरकार इतनी कमजोर और भयभीत है कि न्याय नहीं कर सकती।
तब ऐसे संकटके समय ब्रिटिश भारतीयोंका क्या रुख होगा? हमारे दिमागमें यह बिलकुल साफ है कि क्या होना चाहिए। भारतीयोंको सर्वथा शान्त और धैर्यसे रहना चाहिये, और अब भी भरोसा रखना चाहिए कि अन्तमें न्याय जरूर किया जायेगा। उन्हें सरकारको आदरपूर्ण दरख्वास्तें तो देते ही रहना चाहिए; परन्तु आय वसूल करनेवाले अधिकारियोंके सामने प्रमाण देनेसे दृढ़तापूर्वक इनकार भी करना चाहिए, और कह देना चाहिए कि जो आयोग नियुक्त होगा वे उसके सामने प्रमाण देंगे। हो सकता है कि परवानोंके बिना व्यापार करनेके लिए मुकदमे चलाये जायें और अगर समन जारी कर दिये जायें और परवाने के बिना व्यापार करनेपर जुर्माने किये जायें तो अभियुक्तोंको परिस्थितिके अनुकूल साहस दिखाकर जुर्माना देनेसे इनकार कर देना चाहिए और जेल चले जाना चाहिए। ऐसे कामके लिए जेल जानेमें कोई बेइज्जती नहीं है। आम तौरपर बेइज्जती उन अपराधोंको करने में है, जिनपर कैदको सजा दी जा सकती है। स्वयं कैदमें बेइज्जती नहीं है। इस मामले में कथित अपराध, अपराध है ही नहीं और यह तरीका अपनाना बहुत शानदार बात होगी। हमें मालूम है कि ट्रान्सवालके भारतीय