८१. श्री ग्लैड्स्टनका जीवनवृत्त
इस जमाने में महापुरुषोंमें गिने जानेवाले श्री ग्लैड्स्टनका जीवनवृत्त जो उनके पट्ट शिष्य श्री मॉर्लेने[१] लिखा है, तीन जिल्दोंमें हालमें ही प्रकाशित हुआ है। भारतमें जीवनवृत्त कम लिखे जाते हैं। अतः जीवनवृत्तकी क्या कीमत है, सो समझने में इस ओरकी जनता भाग्यहीन ही रही है। पाश्चात्य जनता इस विषयमें बहुत आगे बढ़ गई है। महात्मा पुरुषोंके जीवनवृत्तोंमें अनेकानेक प्रकारको शिक्षा समाई रहती है। जो शिक्षाप्रद उदाहरण इस जीवनवृत्तसे मिलते हैं, उनका जन-समाजपर बहुत महत्त्वका प्रभाव पड़ता है।
महात्मा ग्लैड्स्टन किस कोटिके पुरुष थे, इस विषयपर एक व्याख्यान माननीय श्री चन्दावरकरने उच्च श्रेणीके श्रोता-समाजके समक्ष २२ नवम्बर, १९०३ को प्रार्थना-समाज मन्दिरमें दिया था। श्री चन्दावरकरने अपने भाषणके आरम्भ में बताया था कि इस संसारमें महापुरुष कौन होता है और महापुरुषमें कौन-कौनसे गुण होने चाहिए। श्री ग्लैड्स्टन कैसे थे, समूचे यूरोपकी जनता एक महापुरुषके रूपमें उनका सम्मान किसलिए करती है, आदि बातोंकी संक्षिप्त चर्चा करके उन्होंने श्री ग्लैड्स्टनकी स्तुति की थी, और वैसा करते हुए माननीय वक्ताने तत्ववेत्ता इमर्सनका उदाहरण देकर बताया था कि जिस मनुष्यमें विनय, सौजन्य, शान्ति, दया, दूसरेका मत कितना ही भूलभरा क्यों न हो, तो भी उसके प्रति आदर, कामको समझनेकी शक्ति, परिणामर्शिता, त्रिकालाबाधित सत्यके प्रति दृढ़ भक्ति-भाव, कार्य करनेकी एक निश्चयात्मक बुद्धि आदि गुण प्रधानतया होते हैं, वह महापुरुष कहा जा सकता है। ऐसा महापुरुष तत्ववेत्ता इमर्सन था। श्री चन्दावरकर ने बताया कि बड़प्पन वाचालतासे नहीं आ जाता, बल्कि ये गण तो संयम-पालनसे ही आ सकते हैं।
श्री मॉर्लेने ग्लैड्स्टनका जो जीवनवृत्त लिखा है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि जिस तरह इमर्सन तत्वज्ञोंमें महान गुणी था, उसी तरह राजद्वारियों और राजनीतिज्ञोंमें ग्लैड्स्टन महान गुणी था। इस महात्माकी यह अद्भुत खूबी है, और यही कारण है कि इंग्लैण्डकी ही नहीं, बल्कि अनेक राष्ट्रोंकी जनता इसकी ओर पूज्य बुद्धिसे देखती है। इस संसारमें जन्म लेकर मेरा कर्तव्य क्या है और मेरी योग्यता क्या है, इसे श्री ग्लैड्स्टनसे अधिक अच्छी तरह दूसरा कोई समझ नहीं सका। व्यवस्थापूर्वक और चिन्तापूर्वक नियमित रीतिसे उन्होंने जो दैनन्दिनी लिखी है, वह इस बातका उत्तम उदाहरण है। राष्ट्रीय उन्नतिके चिन्तनमें वे सदैव निमग्न रहते थे, और उन्हें विद्याका इतना व्यसन था कि उसीके परिणामस्वरूप वे राजमान्य, लोकमान्य और प्रजाप्रिय महात्मा बन गये थे। उनका बुद्धि-चातुर्य विलक्षण था। उनकी राजनीतिक सूझबूझ आदर्श थी। हाथमें लिये हुए कामको पूरा करने में वे बेजोड़ थे। अपयश प्राप्त होनेपर वे खिन्न नहीं होते थे, बल्कि सदैव सत्यको पकड़े रहते थे। यश मिलनेपर आनन्दित नहीं होते थे। बल्कि जब दुनियाके लोग उनपर प्रसन्न होते थे और समाचारपत्र उनकी अद्भुत चमत्कारपूर्ण शक्तिका गान करते थे, तब यह राजमान्य पुरुष अपने मनमें विचार करके बहुत अच्छी तरह सोच लेता था कि उसकी अपनी योग्यता कितनी कम है। इंग्लैंडकी प्रजाकी उन्नतिके लिए
- ↑ बादमें वाइकाउंट जॉन मॉर्ले (१८३८-१९२३), उदार राजनयिक और ग्रन्थकार, १८८६ और १८९२-९५में आयरलैंड-मन्त्री और १९०५-१० में भारत-मन्त्री।