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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/१४७

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ट्रान्सवालकी स्थिति

प्रशंसा-पत्र भी दिया गया था। एक उदाहरण ऐसा था जिसमें किसी व्यक्तिने जिम्मेदारी लेनेसे डरकर अपना पट्टा न्यायाधीशके हवाले कर दिया और न्यायाधीशने परवाना जारी करनेके पहले उसपर अपने दस्तखत करके उस व्यक्तिको कानूनका कवच पहना दिया। और अब ये दोनों आदमी और कम-ज्यादा ऐसी ही परिस्थितिवाले दूसरे आदमी बीहड़ोंमें ढकेल दिये जायेंगे—ऐसे बीहड़ोंमें जिनको बाजारोंकी गलत संज्ञा दी गई है। कसूर यह है कि इनका व्यापार एकदम लड़ाईके पहले उन जगहोंमें नहीं था।

श्री क्रूगरने जो चाहा था यह उससे भी कहीं ज्यादा है। परिस्थिति कितनी हास्यास्पद और दुःखजनक है यह उनमें से एक व्यक्तिके उदाहरणसे स्पष्ट हो जायेगा। १८९९ में इस व्यक्तिको धमकी दी गई थी कि उसे हटकर बाजारमें जाना ही पड़ेगा। उसने ब्रिटिश एजेंटसे दरख्वास्त की। ब्रिटिश एजेंटने सौजन्यके साथ तार देकर कहा कि सूचनाकी परवाह किये बिना वह जहाँ है वहीं बना रहे। जो ब्रिटिश सरकार उस समय अपनी प्रजाकी रक्षाके लिए मुस्तैद थी वही आज पंगु हो गई है और रक्षा करने में डरती है, जब कि बाहरके लोगोंको ऐसा लगता है कि अभयदानके लिए वह आज पहलेसे अधिक अच्छी स्थितिमें है। लड़ाईके पहले भारतीयोंको चलते-फिरते व्यापार करनेके परवाने हकके तौरपर मिल जाते थे। अब राजस्व-अधिकारी ऐसे परवाने देने से इनकार करते हैं।

इसके सिवाय बाजार है ही नहीं, इस तथ्यको चाहे जितना जोर देकर कह सकते हैं। यहाँ तक कि, सरकारने भी स्वीकार किया है कि उनके चुने हुए कुछ स्थान व्यापारोपयोगी नहीं हैं। इन्हें चननेका बहाना यह बताया जाता है कि आन्दोलन बहुत उग्र है। शब्दोंको हेरफेर कर कहें तो सरकार न्याय यों नहीं कर पाती कि भारतीयोंके प्रतिद्वन्द्वी बहत ताकतवर हैं और सरकारको विश्वास है कि किसी-न-किसी दिन इन जगहोंका विकास होगा और तब आजके ये बीहड़ स्थान भी व्यापारके सुविधाजनक स्थल हो जायेंगे।

फिर, इन तथाकथित बाजारोंमें जमीनें देनेकी शर्त यह है कि जमीनवाले अपना पैसा लगाकर वहाँ दूकानें बना लें। हर व्यापारी ४०० या ५०० पौंड लगा कर कामके लायक मकान-दूकान नहीं बना सकता। और ये जमीनें सिवा उनके, जो उनमें बसना या व्यापार करना चाहते हैं, किसीको दी नहीं जा सकतीं।

इसलिए, हालतको चाहे जिस तरह उलट-पलट कर देखिए, भारतीय व्यापारियोंके सामने सर्वनाश ही खड़ा दिखाई पड़ता है।

पुरानी सरकारके बनाए हुए बाजार या बस्तियाँ मिडिलबर्ग और पीटर्सबर्गमें थीं। ये काफी सुविधाजनक स्थानों पर बनी हैं। अब वर्तमान सरकारने बाजार इन नगरोंमें व्यापारके केन्द्रसे और भी दूर निश्चित किये हैं। पुराने बाजारों में बहुतसे भारतीय धन्धा कर रहे हैं। वहाँ गोरोंके साथ स्पर्धाका नाम भी नहीं है। वहाँ कोई गोरा व्यापारी व्यापार करेगा भी नहीं। इतनेपर भी, कहते हुए पीड़ा होती है, सरकारने तय किया है कि इन बाजारों में धन्धा करनेवाले व्यापारियोंको नये स्थानोंपर हटना पड़ेगा। यह तो गोरे व्यापारी सरकारसे जिसकी कामना कर सकते हैं उससे भी ज्यादा हो गया।

लॉर्ड मिलनरने श्री चेम्बरलेनके नाम अपने खरीतेमें सारे संसारके सम्मुख यह प्रकट किया है कि मौजूदा सरकार तीन खास मुद्दों पर प्रतिबन्ध ढीले कर रही है। पहला, बाजारके लिए जो जगहें चुनी जा रही हैं वे व्यापारके केन्द्रसे दूर नहीं है और वहाँ हर समाजका आना-जाना सुगम है; दूसरा, वास्तविक शरणार्थियोंके बाजारोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने फिर दे दिये जायेंगे; और तीसरा यह कि, उच्च स्तरके भारतीय सब कानूनी निर्योग्यताओंगे मुक्त रहेंगे।