रंगदार व्यक्ति कहे जाते हैं, या जिनसे वैसा बरताव किया जाता है—चाहे वे किसी भी जाति या राष्ट्रके क्यों न हों।
उसके बाद वे गुलाम बनानेवाले नियम आते हैं, जिनकी तरफ हमने अनेक बार इन स्तम्भोंमें ध्यान आकर्षित किया है। यह परिभाषा जितनी हो सकती है, उतनी व्यापक और अपमानजनक है। यहाँ तक कि, राजा रणजीतसिंहजी[१], या सर मंचरजी[२], या लॉर्ड मिलनरके शब्दोंमें जापानी राजदूत भी, जापानियोंके बारेमें हम अखबारोंमें जो भी गर्वभरी बातें पढ़ते हैं उनके बावजूद, अगर एक खानगी व्यक्तिकी तरह सफर करना चाहें तो ब्रैडफोर्ट नगरमें उनके साथ दक्षिण आफ्रिकाके एक वतनीका-सा बरताव किया जायेगा, उन्हें पृथक बस्तियोंकी सीमामें ही रहना पड़ेगा, निवास परवाने लेने पड़ेंगे, वे "आवारा वतनी" माने जायेंगे—चाहे इस शब्दका कुछ भी अर्थ हो, रातके दस बजेके बाद बस्तीके बाहर नहीं रह सकेंगे, कर्फ्यूकी घंटीके बाद आम रास्तों या खुली जगहोंमें नहीं रह सकेंगे और जिन गाड़ियोंपर "केवल वतनी" लिखा होगा उनके सिवा और गाड़ियोंमें नहीं चल सकेंगे। जिस तरीकेसे परम्परागत ब्रिटिश नीतिका सार्वत्रिक त्याग किया गया है वह भी बहुत चतुरतापूर्ण है। उपनिवेशके कानूनमें ऐसा कोई भेद-भाव रखा जाता तो उसके लिए उपनिवेश-कार्यालयसे मंजूरी लेनी पड़ती, और वह मंजूरी देनेके लिए कितना भी तैयार क्यों न हो, शायद पूरी-पूरी बात मंजूर न कर पाता। इसलिए उपनियमोंकी शरण ली गई है, जिनके लिए ब्रिटिश मंत्रिमंडलसे स्वीकृति लेनेकी आवश्यकता नहीं है, और जिनकी मंजूरी वैधानिक शासनवाले उपनिवेशका लेफ्टिनेंट गवर्नर स्वभावतः और शिष्टाचारवश कुछ आपत्ति किये बिना दे देता है। और फिर भी उस लड़कीकी तरह जो बराबर चिल्लाती रही कि "अब भी हम सात हैं"[३], ऑरेंज रिवर उपनिवेशके राज्याधिकारियोंको यह कहते शर्म नहीं आयेगी कि, "अब भी हम ब्रिटिश नीतिका पालन कर रहे हैं!" आशा है, इंग्लैंडमें कोई व्यक्ति इन नियमोंको, जिन्हें हम अन्यत्र छाप रहे हैं, देखेगा, इनका अध्ययन करेगा और जनताको बतायेगा कि उन्नत ऑरेंज रिवर उपनिवेशमें इंग्लैंडके नामपर क्या किया जा रहा है।
इंडियन ओपिनियन', २१-१-१९०४