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८५. आत्मत्याग

त्याग जीवनका धर्म है। वह जीवनके हर क्षेत्रमें व्याप्त है और उसका नियमन करता है। व्यापारिक भाषामें कहें तो, कीमत चुकाये बिना अथवा, दूसरे शब्दोंमें, त्याग किये बिना, हम न कुछ कर सकते हैं और न पा सकते हैं। हम जिस समाजके अंग हैं उसका यदि हमें उद्धार करना है तो हमें इसका मूल्य अदा करना होगा, अर्थात् स्वार्थका त्याग करना होगा। समाजके लिए काम करते हुए जो-कुछ प्राप्त हो उसका एक भाग ही हम अपनी खातिर रख सकते हैं, अधिक नहीं। बस यही त्याग है। कभी कभी हमें महंगे दाम चुकाने पड़ते हैं। सच्चा त्याग कर्मसे अधिकतम आनन्द प्राप्त करने में ही है—फिर उसमें जोखिम चाहे कुछ भी हो। ईसा मसीहने कलवारीमें क्रॉसपर प्राण दिये, और वे ईसाई धर्मके रूपमें एक शानदार विरासत छोड़ गये। हैम्डनने[१] कष्ट पाया, परन्तु जहाजी-कर नहीं रहा। जोन ऑफ आर्कको जादूगरनी कहकर जला दिया गया; परन्तु उसे अमर सम्मान मिला और उसके हत्यारे सदाके लिए कलंकित हो गये। संसार उसके आत्म-त्यागका परिणाम जानता है। अमेरिकावालोंने अपनी स्वाधीनताके लिए अपना खून बहाया।

ये दृष्टान्त हमने फर्क बतानेके लिए दिये हैं कि व्यक्तिगत रूपमें भारतीयोंको समाजका बहुत बड़ा लाभ करने के लिए कितनी थोड़ी कुर्बानी करनी है, और जिनके उदाहरण हमने दिये हैं उन्हें कितना त्याग करना पड़ा था। दक्षिण आफ्रिकामें आम तौरपर और ट्रान्सवालमें खास तौरपर भारतीय अनेक कष्ट भोग रहे हैं। ट्रान्सवालमें उनका भाग्य अधरमें झूल रहा है। उनके रोजीके साधनतक निर्दयतासे छीने जा सकते हैं। उन्हें अशिष्टतापूर्वक पृथक बस्तियोंमें खदेड़ा जा सकता है। तब फिर ब्रिटिश भारतीय कौन-सा आत्मत्याग करें, जिससे उन्हें राहत मिलनेकी आशा हो सके? प्रत्येक भारतीयको इस प्रश्नपर इस तरह सोचना चाहिये मानो यह खुद प्रभावित करता है। उसे सबकी भलाईके लिए धन देना चाहिए और अपना समय और शक्ति लगानी चाहिए। सबके खतरेका सामना करने के लिए व्यक्तिगत मतभेदको भुला देना जरूरी है। अपने-अपने आराम और अपने-अपने फायदेको छोड़ना चाहिए। इसके साथ धीरज और संयम भी रखना होगा। जो सीधा और तंग रास्ता यहाँ बताया गया है उससे जरा भी इधर-उधर हुए तो कगारेपर से नीचे आ गिरेंगे—इसलिए नहीं कि हमारा पक्ष जरा भी बेजा या कमजोर है, बल्कि इसलिए कि हमारे खिलाफ जो विरोध खड़ा किया गया है वह बहुत बड़ा है।

सामूहिक भावनाके बिना कभी किसी जाति या समाजने कोई सफलता प्राप्त नहीं की। राष्ट्रीय हित करनेकी इच्छा हो सकती है, परन्तु केवल-मात्र इच्छा, यद्यपि वह ध्येयकी ओर प्रगतिमें एक आवश्यक मंजिल है, कुछ ज्यादा किये बिना बेकार होती है। ध्येयकी प्राप्तिके लिए आवश्यक साधन अपनानेकी तैयारी होनी चाहिए। किसी जंजीरमें उसकी सबसे कमजोर कड़ीसे ज्यादा ताकत नहीं होती। अगर हम अटल रहकर कन्धेसे-कन्धा भिड़ाकर और अस्थायी निराशाओंसे विचलित हुए बिना खड़े रहने और काम करने के लिए तैयार नहीं है तो हमारे लिए

  1. इंग्लैंडके राजा चार्ल्स प्रथमने १६३४-३७ में नौसेनाके परिपोषणके लिए संसदकी अनुमतिके बिना, एक जहाजी कर लगा दिया था। जॉन हैम्डन (१५१४-१६४३)ने उसके खिलाफ आन्दोलनका नेतृत्व किया; जिसमें उसे बहुत कष्ट सहने पड़े, किन्तु जहाजी कर अन्ततः रद हो गया।