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८८. आत्मत्याग—१

मनुष्यकी प्रकृति ऐसी है कि वह अतिशय सामान्य वस्तुको कुछ नहीं गिनता। साधारणतः हम कहते हैं कि खाये-पिये बिना आदमीकी एक घड़ी भी गति नहीं है। किन्तु ऐसा कहते समय हम इतना नहीं सोचते कि खानपानकी अपेक्षा हवा ज्यादा जरूरी है—किन्तु हम उस ओर ध्यान नहीं देते, क्योंकि हमेशा श्वास लेते रहते हैं। और भूख-प्यास समय-समयपर लगती रहती है, उसकी झट याद आ जाती है। इसी प्रकार आत्मत्यागको समझिए। जिन्दगी आत्मत्याग करनेसे निभती है। फिर भी उस ओर ध्यान नहीं जाता।

आत्मत्याग अनेक प्रकारका है; आज हम केवल स्वार्थके त्यागका विवेचन करेंगे। स्वार्थके त्यागकी महिमा सब जानते हैं। और इस विषयमें मनुष्य जितना अधिक विचार करता है उसकी उतनी अधिक जरूरत लगती है और वह उसे समझता है। नासमझ सोचे तो जरूरी लगे, समझदार सोचे तो जरूरी लगे, इतना ही नहीं वह उसे समझ भी सकता है और समझनेपर वैसा स्वार्थत्याग करनेके लिए तत्पर भी हो जाता है। हम यह बात अपने बचपनसे जानते है और इसलिए बारबार कहते हैं कि मेहनतके बिना कुछ नहीं मिलता। किन्तु हम जैसे-जैसे बड़े होते हैं और विचार करते है वैसे-वैसे अपने अनुभव और इतिहासके अध्ययनसे इन साधारण वचनोंका तात्पर्य हमारी समझमें अधिकाधिक आने लगता है। टेकरी चढ़ने में थोड़ी मेहनत, पहाड़ चढ़ने में बहुत मेहनत; छोटा काम करने में कम जोखिम, कम कष्ट, बड़ा काम करने में बड़ी जोखिम, बड़ा कष्ट। अगर हमें पहाड़ चढ़ना आवश्यक जान पड़ता है तो हम बहुत श्रमकी परवाह नहीं करते और बड़ा काम करना हो तो जोखिम और कष्टको नहीं गिनते अर्थात जरूरत पड़नेपर त्याग करने में नहीं डरते।

इस मुल्कमें रहनेवाले हमारे भाई भी इस विचारसे अनजान नहीं हैं। यहाँ आकर वे जो दो पैसे कमाते हैं वह इसी त्यागका परिणाम है। घरबार छोड़ा, सगे-सोदरे छोड़े, महासागर पार किया—इतना सारा त्यागा और भली भाँति विचार करनेके बाद। त्याग किया, हिम्मत बाँधी तभी इस देशमें आ सके और स्थिति सुधार सके। अर्थात् सोच-विचारकर त्याग करनेसे अच्छा फल निकलता है, इसे वे अच्छी तरह समझते हैं और इसलिए समय-समयपर त्याग करके अपनी स्थितिको सुधारनेका प्रयास करते हैं और हम आशा करते हैं कि वे सदा सोच-समझकर त्याग द्वारा सार्वजनिक और अपनी हालत रोज-रोज सुधारते ही रहेंगे।

हम आज त्याग करने के कर्त्तव्यके विषयमें इसलिए लिख रहे हैं कि देशमें और विशेषतः ट्रान्सवालमें गोरे लोग हमारी स्थितिको अत्यन्त विषम बनाने पर तुले हुए हैं। हमारे साधारण अधिकार एकके बाद एक छीने जा रहे हैं। इसके बाद भी कोई हमारी तरफसे बड़ा संघर्ष नहीं चलाता और इसलिए गोरे हमें असहाय और निर्बल मानते हैं और उनकी मदांधता दिन-दिन बढ़ती जाती है। यहाँकी सरकार गोरोंके हाथमें है और उन्हें नाराज करने में डरती है; इसलिए उनकी चाहे जितनी ऊटपटांग और अन्यायपूर्ण जिद मान लेती है और उसे कायम रखती है और बड़ी सरकारको समझाती है कि लोकमतका मान रखने के लिए ऐसा करना पड़ता है। हमारे दुर्भाग्यसे बड़ी सरकार अपनी सत्ताका प्रयोग करके [लोकमतके] ऐसे दुरुपयोगके खिलाफ काफी जोर नहीं लगाती। भारत-सरकार, हमारी रक्षा करना जिसका खास फर्ज है, एकाध बार डरते-डरते थोड़ा-सा बोलती है—केवल थोड़ा-सा। जब हमारी ओरसे दबाव डाला गया तभी लॉर्ड मिलनरने मजदूरोंकी मांग की। उससे एक अवसर मिला और कहा गया कि यदि [स्वतंत्र] भारतीयोंकी स्थिति सुधारी जाये तो किसी निश्चित अवधि तक गुलामी करनेके