लिए मजदूर भेजे जायें। हमारे अधिकारका मजदूरोंकी गुलामीसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है—फिर भी ऐसी शर्त पेश की गई; इसपर से ऐसा अनुमान होता है कि यदि ट्रान्सवाल गुलामोंकी तरह काम करने के लिए भारतीय मजदूर भरती करनेकी मांग वापस ले ले तो भारत-सरकार ट्रान्सवालमें रहनेवाली भारतीय जनताकी हालत नहीं सुधार सकती। नेटाल और ऑरेंज रिवर कालोनीके उपनिवेशोंसे तो हमें कोई आहट ही नहीं आती, मानो वहाँ दूधकी नदियाँ बह रही है। ऐसा है हमारा दुर्भाग्य और इसलिए हमें कर्तव्योंके विषयमें बार-बार लिखना पड़ता है। हमारे बुजुर्गोंकी 'अपने मरे बिना सरग नहीं मिलता' और 'परकी आशा सदा निराशा' जैसी कहावतें ऐसे दुखदायी अनुभवोंपर से याद आती है और उनका महत्त्व समझ में आता है।
इतना याद रखना चाहिए कि ब्रिटिश सरकारकी वृत्ति न्यायी है और इच्छा इंसाफ करनेकी है। राज ब्रिटिश है इसलिए ब्रिटिश राजनीति समझना हमारा फर्ज है। जैसे-जैसे ब्रिटिश राजनीति और नियमोंका अध्ययन करते हैं वैसे-वैसे, किस तरह अपनी मांगें सामने रखें, यह समझमें आता है, और यदि यह समझ में आ जाये तो फिर मुराद पूरी होने में बहुत मुश्किल नहीं रहती। समय लगता है किन्तु बात वाजिब हो तो अन्तमें होकर रहती है। ऐसा नहीं है। कि केवल भारतीय जनताको ही इन्साफ देरमें मिलता है, आयरलैंडका उदाहरण देखिये; ब्रिटिशप्रकृति ही ऐसी है। अब हमारा फर्ज यह है कि यह बात ध्यान में रखकर प्रयत्न करें। सबका सुख सो मेरा सुख, सबका लाभ सो मेरा लाभ, ऐसा उत्तम विचार मनमें दृढ़ करके मन लगाकर यदि हम अपना काम करते है तो अन्तमें हमारी धारणा अवश्य पार पड़ेगी क्योंकि हम न्याय मांग रहे हैं, मेहरबानी नहीं।
इंडियन ओपिनियन, २१-१-१९०४
८९. एक बेजोड़ मुकाबला
ट्रान्सवालके भारतीयोंका प्रश्न एक नई और चिन्ताजनक स्थितिमें पहुंच गया है। उस उपनिवेशकी सरकारने न्यायकी पुकार सुनी-अनसुनी कर दी है। उसने 'न खाय न खाने दे' की नीति अख्तियार करनेका फैसला किया है। यहाँतक कि भारतीयोंको काफिरोंकी बस्तियों में भी व्यापार करनेकी इजाजत नहीं है, ताकि कहीं ऐसा न हो कि, वे उससे अपनी आजीविका उपार्जित कर लें! सरकारका खयाल है कि उसने बस्ती शब्द बदलकर बाजार कर दिया, यह बड़ी रियायत दे दी है। और ऐसा करने के बाद यह स्वाभाविक ही है कि वह इसके बदलेमें बस्तियोंको उन जगहोंसे भी ज्यादा दर हटा दे जहाँ वे बोअरोंकी हकूमतमें थीं; और उन जगहोंमें रख दे जहाँ, कमसे-कम कुछ जगहोंमें, उसकी अपनी ही स्वीकारोक्तिके अनस इस समय व्यापार चलाना ममकिन नहीं है।
चिकित्सक लोग इलाजका एक तरीका जानते हैं, जिसे वे अनशन-चिकित्सा कहते हैं। ट्रान्सवाल सरकारने भारतीय मुसीबतका भी ऐसा ही इलाज अपनाया है। अगर वह भारतीयोंको शराफतसे सीमा पार नहीं भेज सकती तो, कोई कारण नहीं कि उन्हें शहरकी हदके बाहर भी न रख सके, जिससे या तो वे भूखों मर जायें या बिलकुल चले जायें। जब यही तरीका डचोंके अलावा दूसरे यूरोपीय लोगोंपर जो कुछ पहलेतक एटलांडर[१] कहे जाते थे, लागू
- ↑ दक्षिण आफ्रिकी डचेतर गोरे प्रवासियों के लिए डच नाम।