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एक बेजोड़ मुकाबला

किया गया था, उस समय लॉर्ड मिलनरने इसे "टोंच-कोंच नीति" का नाम दिया था। फिर भी, बोअर-सरकारने डचेतर यूरोपियोंके साथ जो व्यवहार किया था, निर्दयतामें उसकी तुलना ट्रान्सवाल-सरकारके इस व्यवहारसे नहीं की जा सकती, जो वह अपने एक प्रजा-वर्गके साथ अब कर रही है। इसीलिए भारतीयोंने, अन्तिम उपायके रूपमें, इस मामलेको उपनिवेशके उच्च न्यायालयमें ले जाने और यह परीक्षा करानेका बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला किया है कि क्या सरकारको ब्रिटिश भारतीयोंको बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने देनेसे इनकार करनेका अधिकार है। ऐसा रास्ता अख्तियार करना बहुत ही जरूरी हो गया है, यह बड़ा दयनीय है। किन्तु ट्रान्सवालके भारतीय लगभग दो वर्षतक इस मामलेको सर्वोच्च न्यायालयके सम्मुख नहीं ले गये, और उससे फैसला लेकर मामलेको खत्म करने के बजाय उन्होंने सरकारसे ही थोड़ा-सा न्याय प्राप्त करनेका प्रयत्न किया, यह उनके लिए निश्चय ही श्रेयास्पद है। वे पूरी तरह श्री चेम्बरलेनकी सलाहपर चले हैं और उन्होंने यूरोपीय व्यापारियों और सरकारसे उचित समझौता करनेकी कोशिश की है। उन्होंने केवल अपने मौजूदा हकोंके संरक्षणकी मांग की है। और, लॉर्ड मिलनरके नाम श्री चेम्बरलेनके खरीतेके बावजूद जब इतना भी उन्हें देनेसे इनकार किया गया तभी वे सर्वोच्च न्यायालयसे क्या फैसला मिलता है यह आजमाइश करने के लिए मजबूर हुए हैं।

यह भाग्यकी विडंबना है कि भारतीय समाज उसी मामलेको सर्वोच्च न्यायालयमें ले जायेगा—और यह भी सरकारी विरोधके बावजूद—जिसके सम्बन्धमें श्री चेम्बरलेनने भारतीयोंका पक्ष लिया था और इसका समर्थन अखीर तक किया था। यहाँ तक कि, जब बोअर उच्च न्यायालयका फैसला[१] आशाके विरुद्ध और ब्रिटिशोंकी मान्यताके विपरीत हुआ तब श्री चेम्बरलेनने श्री क्रूगरसे कहा कि वे ब्रिटिश भारतीयोंके हकमें मामलेको एक भिन्न दृष्टिकोणसे पेश करेंगे। जिस बातका हम उल्लेख करते हैं वह सन १८९८ की है। यह स्मरण होगा कि भूतपूर्व फ्री स्टेटके तत्कालीन प्रधान न्यायाधीशने ब्रिटिश सरकार और बोअर सरकारके एक निवेदनपर फैसला[२] दिया था। प्रश्न यह था कि बोअर-सरकारको एशियाई विरोधी कानून बनानेका अधिकार है या नहीं। पंचने फैसला दिया कि बोअर सरकारको सन् १८८५ का कानून ३, जिस रूपमें वह सन् १८८६में संशोधित हुआ था उस रूपमें, मंजूर करनेका अधिकार है। इस फैसलेकी बिनापर बोअर सरकारने "स्वच्छताके प्रयोजनसे उनको (एशियाकी आदिम जातियोंके लोगोंको),” निवासके लिए निर्दिष्ट गलियाँ, मुहल्ले और बस्तियाँ बता देनेका अधिकार सुरक्षित कर लिया। लेकिन इससे समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई, क्योंकि यह जानना तो बाकी रह ही गया था कि "निवास" शब्दका अर्थ क्या था। अर्थात, क्या इसका अर्थ यह था कि भारतीय जहाँ चाहे वहाँ रह नहीं सकते; किन्तु व्यापार कर सकते हैं? ब्रिटिश सरकार कहती थी—हाँ, कर सकते हैं। बोअर सरकारका खयाल दूसरा था। इसीलिए भूतपूर्व गणराज्यके उच्च न्यायालयकी पूरी न्यायसभाके सम्मुख परीक्षार्थ एक मुकदमा चलाया गया। न्यायमूर्ति मॉरिस, जॉरिसन और ईसरकी न्यायसभा बनी। न्यायमूर्ति मॉरिसने मुख्य फैसला दिया। उससे न्यायमूर्ति ईसरने तो सहमति प्रकट की, किन्तु न्यायमूर्ति जॉरिसन असहमत रहे। जैसा कि फैसलेसे मालूम होगा, न्यायमूर्ति मॉरिसने पूरी तरहसे ब्रिटिश या, यों कहिए कि, भारतीय दावेके पक्षमें तर्क किया, किन्तु यह महसूस भी किया कि वे उच्च न्यायालय एक पहलेके सर्वसम्मत निर्णयको स्वीकार करने के लिए बँधे हुए हैं। न्यायमूर्ति ईसरकी सहमतिका

  1. देखिए, खण्ड ३, पृष्ठ १-२ और १३-१७।
  2. देखिए खण्ड १, पृष्ठ १७७-७८ और १८९-९०।