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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

आधार भी वही था। न्यायमूर्ति जॉरिसनको अपना निर्भीक फैसला देने में कोई कठिनाई नहीं हुई। चूंकि वे "निवास" शब्दकी व्याख्यामें ईमानदारीसे व्यापार या व्यवसायको शामिल नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्हें उच्च न्यायालयके पहले फैसलेको उलटने में कोई झिझक नहीं हुई।

इससे भी ब्रिटिश सरकारका उत्साह भंग नहीं हुआ। उसने भारतीयोंके हितोंकी रक्षा करने लायक काफी उपाय फिर भी कर लिए और फैसला खिलाफ होनेके बावजूद लड़ाई शुरू होनेतक ब्रिटिश प्रतिनिधि बोअर सरकारको भारतीयोंको बस्तियोंमें भेजनेसे रोकने में समर्थ रहा। अब समय बदल चुका है और उसी प्रकार ब्रिटिश नीति भी। आगामी संघर्षको देखते हुए हम इन तीनों फैसलोंका विस्तृत विश्लेषण फिर करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-१-१९०४

९०. धन्यवाद, बोर्कसाहब

श्री बोर्कने भारतीय रेलगाड़ियोंमें भारतीय यात्रियोंके नियमनके बाबत जो प्रश्न[१] किया था, उसके उत्तरमें सर रिचर्ड सॉलोमनने नीचे लिखी जानकारी दी है:

भारतकी रेलगाड़ियोंमें यूरोपीय और देशी लोगोंकी यात्राका नियमन करनेकी व्यवस्थाके बारेमें मुझे कोई व्यक्तिगत जानकारी नहीं है। मैंने माननीय सदस्यके प्रश्नको एक नकल रेलवे-कमिश्नरको भेज दी थी। उन्होंने मुझे पत्र द्वारा सूचित किया है कि भारतीय रेलोंमें प्रथा यह है कि कोई भी देशी व्यक्ति, अगर वह अपना भाड़ा दे देता है तो, जिस डिब्बेमें चाहे उसमें बैठ सकता है। और यह भी कि, सब रेलगाड़ियों में स्त्रियोंके डिब्बे लगाये जाते हैं, परन्तु यदि कोई गोरा व्यक्ति अपनी पत्नीके साथ यात्रा करना चाहे, और साथ ही यह आश्वासन भी चाहे कि उसके डिब्बे में कोई देशी व्यक्ति न रहेगा, तो उसे पूरा-का-पूरा डिब्बा लेना पड़ता है।

यह जानकारी ठीक हमारे अनुमानके अनुरूप है, और यद्यपि हमें श्री बोर्कके साथ सहानुभूति है कि वे जो कुछ चाहते थे वह उन्हें नहीं मिला, फिर भी माननीय सदस्य इतना कष्ट उठानेके लिए धन्यवादके पात्र तो हैं ही; और हम आशा करें कि वे जो उत्तर मिला है उसे मंजूर करेंगे। उन्होंने चुनौती दी थी, और जो उत्तर पानेका अनुमान बाँधा था कि भारतीय रेलोंमें भेदभाव किया जाता है और, इसलिए, वैसा भेदभाव ट्रान्सवालकी रेलोंमें भी बहत वाजिबी तौरसे किया जा सकता है, इस तर्कका उलटा भी तो सही होना चाहिए। इसलिए, चूंकि भारतमें कोई भेदभाव नहीं किया जाता, इसका अर्थ यह होता है कि ट्रान्सवालमें भी ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति भेदभाव नहीं किया जा सकता। श्री बोर्क एक सम्मानित पुरुष हैं। वे भेदभावकी पीड़ासे ग्रस्त हैं सही, फिर भी इसी कारण वे उस स्थितिसे पीछे नहीं हटेंगे, जिसे उन्होंने जानबूझकर ग्रहण किया है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-१-१९०४
  1. देखिए. "श्री बोर्कसे प्रार्थना," १४-१-१९०४।