९१. ब्लूमफॉंटीनका संकट
दक्षिण आफ्रिका सचमुच अचरजों और संकटोंका स्थान है, जैसा कि उसे नामवरीकी कब्र भी बताया गया है। पिछले दस वर्षों में उसपर मसीबतोंपर मसीबतें आई हैं। बेग्बीका विस्फोट, जेमिसनके हमलेके ऐन मौकेपर ग्लेनको जंक्शनकी रेल दुर्घटना और अभी हालका ब्लूमफाँटीनका प्रलयंकर तूफान—इन सबसे मालूम होता है कि दक्षिण आफ्रिकाके लोग कैसी अनिश्चित हालतमें रह रहे हैं। रॉयल होटलके छज्जेपर खड़े हुए लोग पानीसे घिरनेके पाँच मिनट पहले ही, जब पानी हहराता-घहराता आ रहा था, शायद यह सोच रहे थे कि वे एक भव्य दृश्यका आनन्द ले रहे हैं। मगर, अफ़सोस, उन पाँच मिनटोंके अन्तमें साराकासारा विशाल भवन भहराकर भूमिसात् हो गया, और वह दु:खद कहानी कहनेको सिर्फ एक या दो व्यक्ति बचे! इस मन्दीके समयमें लगभग आधे ब्लूमफाँटीनका बह जाना, लगभग चार सौ लोगोंका बे-घरबार हो जाना और साठसे अधिक व्यक्तियोंका पानीमें बिलकुल समा जाना एक ऐसा आघात है, जिसे सहना बहुत कठिन है। विध्वंसके इस नज़ारेमें राहतका बाइस सिर्फ वह हमदर्दी है, जो दक्षिण आफ्रिकाके हर हिस्सेसे उस दुर्भाग्यग्रस्त स्थानको हासिल हुई है। विभिन्न नगरपालिकाओंने ब्लूमफाँटीनके मेयरकी अपीलका तत्परताके साथ और उम्दा तरीकेसे उत्तर दिया है—यह उनके लिए बड़ी प्रशंसाकी बात है। और हमें अपने पाठकोंको सूचना देते हर्ष होता है कि भारतीय समाज भी पीड़ितोंके सहायतार्थ चन्दा दे रहा है। सहायता कितनी छोटी क्यों न हो, वह सब अवसरके अनुकूल और बहुत ही उपयुक्त प्रयोजनके लिए होगी। इसलिए हम अपने पाठकोंसे, उनकी स्थिति कैसी भी क्यों न हो, अपील करते हैं कि वे अपनी जेबें टटोलें और अपना चन्दा भेजें।
इंडियन ओपिनियन, २८-१-१९०४