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९२. जोहानिसबर्ग व्यापार-संघ

जोहानिसबर्ग व्यापार-संघ (चेम्बर ऑफ कॉमर्स) की कार्य-समितिने संघके सामने यह प्रस्ताव रखा है:

पिछली अप्रैलको सरकारी सूचनापर, उपनिवेश-सचिव द्वारा विधान परिषदमें पेश किये गये उसके संशोधनपर, विधान परिषदके जाँच-आयोग नियुक्त करनेके प्रस्तावपर, और १९ दिसम्बरको हुए ट्रान्सवाल व्यापार-संघके प्रतिनिधियोंके सम्मेलनको सिफारिशोंपर ध्यान दिया गया।

आपकी समिति अब सिफारिश करती है कि,

(१) शासन-परिषद द्वारा की गई व्यवस्थाकी, जो अप्रैल १९०३ की सरकारी सूचना ३५६ में शामिल है, उचित आजमाइश की जाये। (२) सरकारसे निवेदन है कि उक्त सूचनाको अन्तिम धारामें उल्लिखित अपवाद बहुत ही सीमित रूपमें मंजूर किये जायें, क्योंकि यूरोपीय समाजके बीच रहनेवाले एशियाइयोंको संख्यामें कुछ भी वृद्धि होना उस समाजकी व्यापक भावनाके विपरीत होगा। (३) युद्धसे पहले परवानोंके बिना व्यापार करनेवाले भारतीयोंके मामलोंपर संघ तबतक मत प्रकट न करे जबतक इस मामले में सरकार द्वारा नियक्त आयोगकी जाँच पूरी न हो जाये। (४) किसी एशियाईको किसी गोरेके नामसे व्यापार न करने दिया जाये या ऐसे किसी व्यवसायके मुनाफे में अपना स्वार्थ न रखने दिया जाये, जिसका परवाना किसी गोरेके नामसे लिया गया हो। (५) उपर्युक्त सिफारिश १ के बावजूद, और सारे प्रश्नको स्थायी और अन्तिम रूपसे निपटाने और इस मामलेको फिरसे उखाड़नेके अन्य प्रयत्नोंको रोकने के महत्त्वको देखते हुए, समितिको सिफारिश है कि बिना भेद-भावके तमाम एशियाई व्यापारियोंको हटाकर बाजारों में रखने और जिन लोगोंके कानूनके अनुसार प्राप्त निहित स्वार्थ हों उन्हींको मुआवजा देनेके औचित्यपर सरकारसे विचार करनेको कहा जाये।

समितिकी सिफारिशें निश्चित रूपसे निराशाजनक हैं। संघके पिछले इतिहासके आधारपर हमने समितिकी तरफसे अधिक राजनयिक सूझबूझका प्रस्ताव पानेकी उम्मीद की थी और हम अब भी आशा करते हैं कि संघ अपनी कार्य-समितिके प्रस्तावको मानने से इनकार कर देगा। जब समिति एक अनुच्छेदमें कहती है कि बाजार-सूचनाकी आजमाइश की जाये और दूसरेमें कहती है कि इस आजमाइशके बावजूद ब्रिटिश भारतीय दूकानदारोको बाजारोंसे निकाल दिया जाये और मुआवजा दे दिया जाये, तब उसका यह तर्क समझना कठिन हो जाता है। समिति चाहती है कि सरकार निवास-सम्बन्धी अपवाद बहुत ही कम कर दे। जोहानिसबर्ग जैसे अन्तर्राष्ट्रीय शहरकी तरफसे यह बात बहुत हास्यास्पद है। किन्तु हम समितिको विश्वास दिलाते है कि अबतक भारतीयोंने काफी संयम रखा है और किसी भी अपवादका लाभ नहीं उठाया है। जबतक वे अपनी वैध हैसियतकी कमी पूरी नहीं कर लेते तबतक वे अपने निवासके लिए सरकारकी उदारतापर निर्भर नहीं रहेंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-१-१९०४