९४. ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय
पिछले सप्ताह हमने तैय्यब हाजी खान मुहम्मद और एफ० डब्ल्यू० राइट्ज, एन० ओ०, के परीक्षात्मक मुकदमेका[१] जिक्र किया था। जैसा कि हम बता चुके हैं, उस मुकदमे में सारी बहस इस बातपर आ पड़ी कि "निवास" शब्दका क्या अर्थ किया जाये। १८८५ का कानून ३, १८८६ के संशोधनके अनुसार यह विधान करता है:
सरकारको सफाईके प्रयोजनसे उन्हें (एशियाको आदिम जातियोंके लोगोंको) रहने के लिए निश्चित गलियाँ, मुहल्ले और बस्तियाँ बतानेका हक होगा।
तत्कालीन ट्रान्सवाल सरकारको तरफसे यह कहा गया था कि भारतीयोंके निवास स्थानमें रहना भी, जिसका प्रयोजन व्यापार करना हो, शामिल है और, इसलिए, भारतीय निश्चित गलियों, मुहल्लों और बस्तियोंमें ही व्यापार कर सकते हैं। इसके विपरीत, ब्रिटिश सरकारकी यह दलील थी कि "निवास" का मतलब व्यवसायको छोड़कर रिहाइश ही हो सकता है और "सफाईके प्रयोजनसे" वाक्यांश स्पष्ट बताता है कि भारतीय व्यापारको अछूता छोड़ दिया जायेगा। अदालतकी अध्यक्षता करनेवाले न्यायाधीश श्री मॉरिसने पहलेके एक निर्णयको[२], जो १८८८ में इस्माइल सुलेमान ऐंड कम्पनीके मुकदमे में दिया गया था, अपने फैसलेका आधार बनाया। याद रहे कि इस्माइल सुलेमान ऐंड कम्पनीके इस मामलेकी सुनवाई तत्कालीन ऑरेंज फ्री स्टेटके मुख्य न्यायाधीशके पंच-फैसला देने के पहले हुई थी। न्यायाधीशके अपने ही विचारके अनुसार:
अदालत अधिक न्यायानुमोदित सिद्धान्तोंके अनुसार फैसला देती, यदि उसने इस्माइल सुलेमान ऐंड कम्पनीके मुकदमे में किसी स्थानपर रहने और व्यापार करनेके बीच फर्क किया होता। साधारण शब्द-प्रयोगके अनुसार जहाँ कोई व्यापार करता है परन्तु सोता नहीं, वहाँ ऐसा नहीं कहा जाता कि वह रहता है।
परन्तु विद्वान न्यायाधीशने सोचा कि वे पहलेके दिये हुए निर्णयसे बँधे हैं और इसलिए यद्यपि उनका अपना अर्थ उस अर्थसे भिन्न था जो उस शब्दका किया गया, फिर भी वे इस्माइल सुलेमान ऐंड कम्पनीके मुकदमेके फैसलेकी अवहेलना नहीं करना चाहते थे। अब ऐसा मालूम होता है कि गणतन्त्री संविधानकी इस धाराका उस समय पूरा उपयोग किया गया था कि, "राज्यमें गोरों और कालोंमें समानता नहीं होनी चाहिए।" यह मान लिया गया था कि भारतीय (दक्षिण आफ्रिकाकी) काली जातियोंके लोग हैं। ऐसी सूरतमें यह तर्क किया गया कि १८८५ का कानून ३ सुविधा देनेवाला है, पाबन्दी लगानेवाला हरगिज नहीं। इस्माइल सुलेमानके मुकदमे और उपर्युक्त दलीलको काममें लेनेके बारेमें कोई कुछ भी कहे, वह उसके बादके तैयब हाजी खान मुहम्मदके मामलेपर किसी भी तरह लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि मुख्य न्यायाधीशने साफ कहा था कि १८८४ के लन्दन सम्मेलनके[३] अनुसार ट्रान्सवाल सरकारको