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९८. श्री डोमन टेलूकी अकाल मृत्यु

हमें यह सूचित करते हुए बहुत दुःख होता है कि जोहानिसबर्गके सावधान और अति चतुर भारतीय भाई श्री डोमन टेलू जवानीमें यह फानी दुनिया छोड़ गये हैं। जोहानिसबर्गके हमारे सब भारतीय उन्हें अच्छी तरह जानते हैं। असलमें वे अमगेनीके रहनेवाले थे, परन्तु पुरुषार्थ करके अपना भाग्य आजमानेके लिए वे जोहानिसबर्ग पहुँचे थे। वहाँ सबल प्रयास द्वारा अपने सुनारके धंधेमें और दूसरे व्यापारमें मामूली पैसा कमाकर वे जमीनके मालिक बन गये थे। उनकी कुछ जमीन नेटालमें भी है। वे अपने पुरुषार्थसे थोड़ी-बहुत अंग्रेजी सीखे थे और अपने सदुद्योगसे तथा धर्मके आकर्षणसे उन्होंने हिन्दीका अभ्यास किया था। वे धर्माभिमानी थे और हिन्दू धर्मकी उन्नतिके लिए सदा आतुर रहते थे। साधारण सार्वजनिक कामोंमें वे बहुत उत्साह दिखाते थे। माँ-बापकी गरीबीके कारण और नेटालमें साधारणतया भारतीयोंपर गुजरनेवाली आफतोंमें पले-पुसे होनेके कारण वे संकटके समयमें धीरजसे किन्तु दृढ़तासे काम लेना सीखे थे। यह शिक्षण जोहानिसबर्गमें उनके बहत काम आया था।

वे जिस कामका जिम्मा लेते थे उसमें सदा आग्रही रहते थे। परन्तु उस आग्रहको हदमें रखकर काम करनेके लिए वे हमेशा आतुर थे। लड़ाईसे पहले और लड़ाईके बाद भी वे भारतीयोंके सार्वजनिक काममें आग्रहपूर्वक हाथ बँटाते थे। लड़ाईके बाद अनुमतिपत्र (परमिट) के मामले में निःस्वार्थ भावसे और बहुत सचाईके साथ वे हमारे स्वदेशी भाइयोंको (अनुमतिपत्र) दिलाने और उनके दूसरे दुःख दूर करनेके लिए अपना लगभग पूरा समय खपाते थे। बोअर लोगोंकी मुसीबत दूर हुई और अंग्रेजी राज्यमें हमारी स्थिति अच्छी होनेकी आशा भंग हो गई, तब हमारी लड़ाई चलानेके लिए सब भाइयोंको एकत्र करने में उन्होंने कोई भी प्रयास बाकी नहीं रखा था। दूसरोंके साथ उनके पुरुषार्थके कारण भारतीय संघ (इंडियन असोसिएशन) नामक सभाकी स्थापना हई थी, और उस सभाके कोशमें सैकड़ोंकी रकम जमा करानेमें वे भोजनादिसे निवृत होकर दिन-रात लगे रहते थे। वे और भी कई सार्वजनिक काम करना चाहते थे। उनकी मृत्युसे भारतीय कौमका एक अच्छा आदमी उठ गया है। वे इंडियन ओपिनियनके एक एजेंट थे और अपने कामकी बलि देकर हर हफ्ते पचास प्रतियाँ खुद जाकर बेचते थे, और उनकी दस्तूरी (कमिशन) तक नहीं लेते थे। जोहानिसबर्गके भारतीयोंके प्रति तथा श्री डोमनके परिवारके प्रति हम अपनी समवेदना प्रकट करते हैं, और परमात्मासे प्रार्थना करते हैं कि वह उनकी आत्माको मुक्ति दे।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ४-२-१९०४