१०४. फिर पीटर्सबर्ग
पीटर्सबर्ग, जो गत वर्ष ब्रिटिश भारतीय दूकानदारोंको तंग करने में अगुआ बना था,[१] उतने ही जोरसे अपनी नीति चला रहा है। नवनिर्मित नगर-परिषदने उत्पीड़न कायम रखनेकी उत्सुकतामें अब एक प्रस्ताव पास किया है कि फेरीवालोंको भी सताये बिना व्यापार न करने दिया जाये। नगर-परिषदके एक सदस्य श्री क्रॉसने यह प्रस्ताव किया है:
एक उपनियमका मसविदा तैयार किया जाये, जिसमें यह बताया जाये कि सिवा उन जगहोंके, जो उनके लिए खास तौरसे अलग कर दी गई हैं, एशियाई अथवा रंगदार लोगोंको अन्यत्र व्यापार करने के लिए कोई परवाने न दिये जायेंगे।
श्री चिटेंडनने प्रस्तावका अनुमोदन किया और, जोटपैन्सबर्ग रिव्यू आगे लिखता है, "यह तय हुआ कि यदि लेफ्टिनेंट गवर्नर उपनियमकी तस्दीक कर दें तो उसके भंगकी सजा २० पौंड जुर्माना या छ: महीनेकी कैद होनी चाहिए।" किसी फेरीवालेसे पृथक बस्तीमें ही फेरीको सीमित कैसे रखवाया जा सकता है, यह समझना कठिन है। श्री क्रूगरकी सरकारने यद्यपि अनेक निर्दयतापूर्ण कार्य किये थे, तथापि वह कभी इतनी दूरतक नहीं गई, जितनी पीटर्सबर्गकी नगरपरिषद जाना चाहती है। पीटर्सबर्गकी नगर-परिषदमें अनेक वकील हैं और यह आश्चर्यकी बात है कि उनमें से किसीको कभी नहीं सूझा कि नगर-परिषद ऐसी अन्यायपूर्ण सत्ता धारण करनेकी चेष्टा करके, जो कानून द्वारा उसे प्राप्त नहीं है, अपने आपको हास्यास्पद बना रही है। इस प्रस्तावपर विचार किया जाये तो इसका तर्क सम्मत अर्थ यह होगा कि किसी विशेष अध्यादेशकी लम्बी-चौड़ी आवश्यकताके बिना ब्रिटिश भारतीय बन्धनमें आ जायेंगे: क्योंकि कोई भारतीय अपनी बस्तीकी सीमाके भीतर ही अपने मालकी फेरी लगा सकता है, तो यह कहना जरा भी अनुचित न होगा कि वह अपने बाजारके भीतर ही घूम-फिर सकेगा और बाजारकी सीमासे बाहर कभी नहीं जायेगा। हम शक नहीं है कि पीटर्सबर्गकी नगर-परिषदके खयालसे नगर-परिषदकी सत्ताका इस तरह अर्थ लगाना आदर्श होगा। किन्तु हमें आशा है कि सर ऑर्थर लाली इस परिषदको उपहास और असम्भव स्थितिसे बचायेंगे और उससे साफ-साफ कह देंगे कि प्रस्तावित उपनियमकी मंजूरी नहीं दी जा सकेगी।
इंडियन ओपिनियन, १८-२-१९०४
- ↑ देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २९४ और ३१०-११।