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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


यह प्रस्ताव पास हो गया। केवल श्री गॉशने इसके विरुद्ध मत दिया।

प्रस्तावमें नम्रतापूर्वक मांग की गई है कि व्यापार और निवासके लिए तमाम एशियाई लोग बाजारों में रख दिये जायें, जो लड़ाईसे पहले परवानोंकी रूसे व्यापार करते थे उन्हें मुआवजा दिया जाये और नगरपालिकाओंको इन मामलोंको विनियमित करनेका अधिकार दिया जाये। ठेठ शब्दोंमें, प्रस्तावका अर्थ यह है कि ब्रिटिश भारतीयोंको भूखों मारा जाये, ताकि वे इस देशको छोड़ दें। श्री गॉशके शब्दोंमें: "एशियाइयोंको बाजारोंमें रखनेका विचार उन्हें वहाँ बसानेका इतना नहीं है, जितना कि उनसे बिलकुल पिण्ड छुड़ानेका है।" ब्रिटिश भारतीयोंने पूर्ण रूपसे सिद्ध कर दिया है कि तथाकथित बाजार निवास या व्यापारके लिए सर्वथा अनुपयुक्त है। ब्रिटिश भारतीयोंको देशसे सर्वथा निकाल देना उन्हें अंग-भंग करके तिल-तिल मारनेकी अपेक्षा दयाका काम होता। श्री कॉन्स्टेबल नगरपालिकाओंके लिए जो सत्ता चाहते हैं उसका आदर्श ऑरेंज उपनिवेशका ब्रैडफोर्ट है। उपनगरके नगरपालिका-उपनियमोंकी हम कुछ समय पहले चर्चा कर चुके हैं और, हमारे खयालसे, हम सिद्ध कर चुके हैं कि किस तरह उन नियमोंके अधीन रंगदार लोग निरे माल-असबाब जैसे बन जाते हैं।

हमें भय है कि श्री कॉन्स्टेबलकी न्याय-भावनाको प्रेरित करना बेकार होगा। वे आत्मरक्षाके थोथे धर्मके पुजारी हैं। और जैसा कि हममें भी कितने ही लोग विद्वेष और हठधर्मीसे अंधे होकर करते हैं, उन्हें अपने अन्तःकरणको समझा लेने और इस तरह सन्तोष दिला देने में कोई कठिनाई नहीं होती कि वह महान कानून चाहता है, ब्रिटिश भारतीयोंको बरबाद कर दिया जाये। इसी कानून के उन अंग्रेजोंने, जो शायद अधिक समबुद्धिवाले थे और, इसलिए, निर्णय करनेके अधिक योग्य थे, दूसरे अर्थ किये हैं। उनका खयाल था कि इस कानूनमें एक दूसरे और उच्चतर कानूनकी मर्यादा लगी हुई है। अर्थात्, हमें अपनी रक्षा इस तरह करनी चाहिए जिससे दूसरे लोगों अधिकारोंका अतिक्रमण न हो। श्री कॉन्स्टेबलके देशवासियोंने भी उक्त मर्यादासे निकलनेव यह सीधा-सादा नतीजा निकाला है कि जब हमारा ऐसे लोगोंसे पाला पड़े तो जो हमार आचरण नहीं करते हैं, और हमें सन्तोष हो जाये कि हम ठीक रास्तेपर हैं, तब हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे वे ऊँचे उठकर हमारी सतहपर आ जायें, न कि वे कुचल दिये जायें। क्या हम उनसे और उनके मित्रोंसे कह सकते हैं कि वे इस पहलूपर विचार करें?

परन्तु भारतीय व्यापारियोंके प्रति विरोधकी इस बढ़ती हुई तीव्रताका रहस्य क्या है? यह नहीं है कि भारतीय हितोंके शत्रुओंकी संख्या बढ़ रही है, बल्कि यह है कि जिन सज्जनोंने पहले विरोध भड़काया था वे एशियाइयोंके दमनके सम्बन्धमें अपनी मांगें अधिकाधिक जा रहे हैं।

क्या भारतीयोंने इसके लिए कोई कारण दिया है? उत्तर बेशक नकारात्मक है। फिर क्या चीज है जिसने द्वेषाग्निको प्रज्वलित किया है? सभामें बोलनेवालोंने इसका उत्तर दे दिया है। उन्होंने सरकारकी मदद करनेके प्रस्तावका समर्थन किया है। सरकारकी मदद क्यों? क्या वह एशियाई विरोधी है? इसलिए क्या उसे इस नीतिमें आम लोगोंकी हिमायतकी जरूरत है? हम इतनी दूर नहीं जायेंगे कि यह कहें कि सरकार जान-बूझकर एशियाइयोंके विरुद्ध है। परन्तु श्वेत-संघोंके महानुभावोंको अनुभवसे पता लग गया है कि अगर वे जोरसे और लगातार एशियाइयोंके विरुद्ध चिल्लायेंगे तो वस्तुतः जो-कुछ वे चाहते हैं, वह उन्हें मिल जायेगा। इसलिए कुदरती तौरपर अपनी मांगोंके बारेमें उनका हौसला बढ़ गया है। उन्होंने १८८५ के कानूनपर अमलकी माँग की, और उत्तरमें बाजार-सूचना आ गई। उन्होंने एशियाइयोंको पृथक बस्तियोंमें भिजवाना चाहा और कई स्थानोंपर बाजार कायम हो गये हैं। हम और भी उदाहरण दे