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ट्रान्सवालके लिए भारतसे मजदूर

सकते हैं, जिनमें सत्ताधारी गोरोंके विरोधके सामने झुके हैं। सरकारके इस झुक जानेका अर्थ लोगोंने आन्दोलन जारी रखनेका निमन्त्रण समझा तो ठीक ही समझा। उत्तरमें श्री कॉन्स्टेबलका प्रस्ताव मौजूद है। लॉर्ड मिलनरने एशियाइयोंके अधिकारोंके साथ खिलवाड़ किया तो हमारे बॉक्सबर्गके मित्र गंगालमें बैठे बच्चेकी तरह मचल रहे हैं कि, "हम तो लेकर ही छोड़ेंगे।" लॉर्ड मिलनरने एशियाई-विरोधी कानूनोंको इस तरह बदल देनेका वचन दिया है कि वे ब्रिटिश संविधानके अनुरूप हो जायें। नगरपालिका-सम्मेलनने बता दिया है कि वह किस प्रकारका परिवर्तन चाहता है। वह तो श्री क्रूगरको भी मात कर देना चाहता है। कलतक जो डचेतर गोरे (एटलॉन्डर्स) कहे जाते थे, उन्हें शिकायत थी कि पुरानी सरकारके दिनोंमें शासनके मामलोंमें उनकी कोई बात नहीं चलती थी। अब उनकी सुनवाई होने लगी है, तो वे उसे उसी तरीकेपर इस्तेमाल करना चाहते हैं जिसके विरुद्ध वे गला फाड़-फाड़कर चिल्लाते थे। जिन ब्रिटिश भारतीयोंका उन्होंने पुरानी हुकूमतसे लड़ने में सहर्ष सहयोग लिया, उन्हींको वे अब सम्मिलित झंडे के नीचे विदेशी (एटलॉन्डर) बना देना चाहते हैं। और यह है शराफत और वफादारीके बारेमें उनका खयाल!

इस सम्मेलनकी सारी दुःखदायी कार्यवाहीके बीच श्री गॉशका भाषण मरुभूमिमें हरियाली जैसा था। वे साफ-साफ और दृढ़तासे बोले। उन्होंने प्रस्तावका विरोध किया और अपने विरोधके पक्षमें ऐसी दलीलें दीं, जिनसे किसी भी आदमीको, जो पक्षपातसे रंगा हुआ न हो, सन्तोष हो जायेगा। भारतीय समाज श्री गॉशका, उनकी स्पष्टोक्ति और न्यायकी हिमायतके लिए, आभारी है। और जबतक उनके जैसे आदमी हैं, हमारा विश्वास बना रहेगा कि जो पक्ष वास्तवमें न्यायपूर्ण है, अन्तमें उसकी ही जीत होगी।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २५-२-१९०४

१०७. ट्रान्सवालके लिए भारतसे मजदूर

सर जॉर्ज फेरारने पिछले सप्ताह खान-संघकी वार्षिक बैठकमें खानोंके वर्षभरके कामकी जो उत्तम समीक्षा प्रस्तुत की, उसमें स्वभावतः ही उन्होंने मजदूरोंके सवालकी विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने जो बातें कहीं उनसे मालूम होता है कि खानोंके लिए भारतसे गिरमिटिया मजदूर जुटाने की अब भी कोशिश हो रही है। उन्होंने कहा:

सम्भव है कि हम अपने कार्यका विस्तार भारततक कर सकें, परन्तु अभीतक भारत-सरकारका रुख विरोधका है। वह हमारे यहाँ मजदूर भेजनेको तो तैयार है, परन्तु उन्हें लौटा देनेकी हमारी शर्तोंपर आपत्ति करती है। फिर भी जब यह समझमें आ जायेगा कि इन खानों में करार पूरा हो जाने के बाद मजदूरोंके लौट जानेसे उनके अपने देशको खुशहाली कितनी बढ़ जाती है, तब भारत-सरकारको आज जो आपत्तियाँ हैं वे शायद भारतीय साम्राज्यके ही हितको खातिर न उठाई जायें।

यह अजीब बात है कि लोग अपने पहलेसे बने विचारोंके समर्थनमें कैसी दलीलें ढूंढ़ लेते हैं। भारत-सरकार एकमात्र भारतीय साम्राज्यके हितोंकी खातिर आपत्तियाँ न उठायेगी, यह कोई नया विचार नहीं है। लॉर्ड हैरिस, जिनसे अधिक जानकारी रखनेकी आशा की जा सकती है, पहले ही यह और इससे ज्यादा कह चुके हैं। इसलिए सर जॉर्ज फेरारके वैसे ही विचारसे हमें आश्चर्य नहीं होता। लेकिन अगर वे थोड़ी गहराई में देखें तो उन्हें तुरन्त पता चलेगा कि

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