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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

उनके तर्कमें कोई सार नहीं है। उदाहरणार्थ, हम मान लेते हैं कि २०,००० भारतीय प्रस्तावित शर्तोंपर ट्रान्सवाल गये और उन्हें ३ पौंड या ३ पौंड १० शिलिंगकी मासिक मजदूरी मिली; और उन्होंने ३० पौंड प्रतिवर्ष बचाये। इसका अर्थ हुआ तीन साल में ९० पौंडकी बचत, अर्थात् २०,००० मजदूरोंने १८,००,००० पौंडकी बचत की। भारतवर्षकी आबादी ३०,००,००,००० की है। इस हिसाबसे ट्रान्सवालमें गिरमिटिया मजदूरोंकी कमाईसे १ पौंड प्रति व्यक्ति बाँटने के लिए कितने साल लगातार काम करना पड़ेगा? क्या कोई आदमी, जिसके होश-हवास ठीक हों, कहेगा कि ऐसे काल्पनिक लाभकी खातिर भारत सरकार भारतीयोंको गुलामोंकी तरह बेच देगी? हमने जो आँकड़े दिये है, वे अवश्य इस कल्पनापर आधारित हैं कि प्रत्येक भारतीय अपनी लगभग सारी मजदूरी बचा लेगा। इसके सिवा, अगर जबरदस्ती वापस भेज देनेका सिद्धान्त मान लिया तो भारतको वर्षानुवर्ष ऐसी भारतीय आबादीके निर्वाहका प्रबन्ध करना होगा जो अपेक्षाकृत अधिक महँगे रहनसहनकी आदी है। नतीजा यह होगा कि प्रस्तावित शर्तोके अनुसार गिरमिटिया मजदूरोंको यहाँ बुलाना वरदान होने के बजाय स्वयं मजदूरोंके लिए भी सचमुच अभिशाप बन जायेगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २५-२-१९०४

१०८. केपके चुनाव

प्रगतिशील दलकी शायद आशासे अधिक जीत हुई है। जो बहुत ही आशावादी थे उन्होंने भी कभी नहीं सोचा था कि इसे विधानसभामें पाँचका स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो जायेगा। हम डॉक्टर जेमिसनको उनकी विजयपर अपनी विनम्र बधाई देते हैं। आशा है कि उनके दलकी सफलता केपके ब्रिटिश भारतीयोंके लिए शुभ होगी, यद्यपि उन्हें केपमें उतनी शिकायतें नहीं हैं, जितनी नेटाल, ट्रान्सवाल अथवा ऑरेंज रिवर उपनिवेशमें हैं। केपमें भी कुछ अरसेसे उनके अधिकार छीन लेनेकी प्रवृत्ति रही है और केप प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियममें भारतीय-विरोधी परिवर्तन किये गये, वह "बॉंड दल" की कृपा है। श्री मेरिमन और उनके मित्रोंने ही विधेयकके मसविदेमें वह संशोधन स्वीकृत कराया, जिससे उपनिवेशमें प्रवेश करने के ऐसे नियम बनाये गये कि वे ब्रिटिश प्रजाजनोंपर भी लागू हो जायें। हमें मालूम है कि बॉंड दलवाले केपके रंगदार लोगोंके पास गये और उन्होंने उन्हें अपने इने-गिने मत बॉंड दलके उम्मीदवारोंको देने के लिए समझाया। और यद्यपि प्रगतिशीलों और बॉंड दलके लोगोंमें चुनाव करनेको शायद बहुत-कुछ नहीं है, फिर भी जहाँतक ब्रिटिश भारतीयोंका सम्बन्ध है, अगर मत देने ही हों तो हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि प्रगतिशीलोंको तरजीह मिलनी चाहिए। सचमच डॉ० जेमिसनने बिलकुल साफ दिलसे सामने आकर कहा कि वे सभ्यताके अलावा और किसी आधारपर ब्रिटिश प्रजाजनोंके बीच कोई भेदभाव करने में विश्वास नहीं रखते। यह ऐसा बयान है जिसपर किसीको आपत्ति नहीं हो सकती। हम यही आशा रख सकते हैं कि लायक डॉक्टर, जो अब उपनिवेशके प्रधानमंत्री हैं, अपनी बातसे मुकर नहीं जायेंगे और प्रतिस्पर्धी व्यापारियोंकी चिल्लाहट या बॉंड दलवालोंके आन्दोलनसे दबकर इस पुराने उपनिवेशमें रहनेवाले ब्रिटिश भारतीयोंके अधिकारों और स्वतन्त्रतामें कमी नहीं करेंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २५-२-१९०४