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प्रवासी-प्रतिबन्धक प्रतिवेदन

वास्ता होता है उन सबके साथ बड़ा शिष्ट व्यवहार करते हैं। हमारे खयालसे जनताको शिकायतें करनेका पूरा हक है। कभी-कभी शिकायतें माकूल नहीं होतीं, अक्सर जोरदार भाषामें प्रकट की जाती हैं और जब-तब बढ़ा-चढ़ा कर भी की जाती हैं। दुर्भाग्यसे यह ऐसी हालत है जिसे ठीक नहीं किया जा सकता, और इस उसूलपर कि "जिसका इलाज नहीं हो सकता उसे बर्दाश्त करना चाहिये", उन अफसरोंसे जिन्हें अप्रिय कर्तव्य पालन करने पड़ते हैं, यह अपेक्षा की जाती है कि वे जनताकी ऐसी बात सहन कर लें और उसकी खिल्ली न उड़ायें। हमारे कहनेका यह मतलब हरगिज नहीं है कि श्री स्मिथको शिकायतका जवाब देनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। हमारा ऐतराज उसके तरीकेपर है।

स्वयं प्रतिवेदनको लें तो श्री स्मिथ अपने शुरूके अंशमें इस बातपर क्षम्य गर्व करते हैं कि १८९७ का मूल प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियम "रद कर दिया गया है और उसके स्थान पर नया और अधिक व्यापक कानून उस ढंगपर बन गया है, जिसके सुझानेका सम्मान मुझे (उन्हें) प्राप्त है।" हमारे लिए यह समझना आसान नहीं है कि इस बातपर गर्व करनेका कारण क्यों होना चाहिए। जो लोग रोजी कमानेके लिए उपनिवेशमें आते हैं और जिनका एकमात्र दोष शायद उनकी गरीबी या चमड़ी है, उन्हें न आने देना कभी कोई आनन्ददायक कर्तव्य नहीं हो सकता, और श्री स्मिथ जैसे उदार प्रकृतिके मनुष्यके लिए तो वह खास तौरपर दु:खद होगा। उनके प्रतिवेदनसे हमें ज्ञात होता है कि वे ६,७६३ भावी प्रवासियोंको सफलतापूर्वक रोक सके। इनमें से ३,२४४ ब्रिटिश भारतीय थे, जिनमें २४ स्त्रियाँ और ३७ बच्चे शामिल हैं। दरअसल चूंकि प्रवास अधिनियम उपनिवेशका कानून है और श्री स्मिथ वे अधिकारी हैं जिन्हें उसपर अमल करानेका काम सौंपा गया है। इसलिए वे उन लोगोंको जो इस कानूनकी कसौटी पर पूरे न उतरें, वापस लौटानेके सिवा कुछ कर नहीं सकते। परन्तु इससे यह प्रकट होता है कि स्वयं कानून कितना कड़ा है और उसका ब्रिटिश भारतीयोंपर कितना भयंकर असर हो रहा है; क्योंकि, यह याद रखना चाहिए कि, इन लोगोंने लम्बी समुद्र यात्रा की थी और नेटालका टिकट लेने में शायद यह सोचकर, कि वे किसी ब्रिटिश उपनिवेशमें उतरनेसे रोके नहीं जायेंगे, अपने पास जो-कुछ था सो सब लगा दिया था। यद्यपि यह कानून है, फिर भी लाखों भारतवासियोंने इस कानूनका हाल शायद ही सुना होगा, इसलिए वहाँके लोग इस सिद्धान्तको हजम नहीं कर सकते कि साम्राज्यके विभिन्न भागोंमें एक ही झंडेके नीचे साम्राज्यके नागरिकोंके अधिकारोंमें इस तरहका भेद हो सकता है।

जाँचके बाद प्रवेश पानेवाले प्रवासियोंमें १,८६९ भारतीय जिनमें १९५ स्त्रियाँ और ४९९ बच्चे थे, २१ चीनी, १ मिस्त्री, ३८ यूनानी, ८ सिंहली, १ सीरियाई, और ८ तुर्क थे। प्रवेश पानेवाले भारतीयोंमें १५८ ने शैक्षणिक परीक्षा पास की। यह कुल प्रवेश पानेवालोंके दशांशसे कम है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि नया कानून अभी तो अमलमें आया ही है; इसलिए हमें भारी अन्देशा है कि श्री स्मिथके आगामी प्रतिवेदनमें शिक्षा-सम्बन्धी जाँचमें पास होनेवालोंकी संख्या बहुत घटी हुई दिखाई देगी।

श्री स्मिथने यह दिलचस्प जानकारी दी है:

"इन बारह महीनोंमें कोई २६९ प्रमाणपत्र (अधिवासके) जब्त किये गये और जो लोग उन्हें लाये थे, उन्हें राह बता दी गई।"

यह देखते हुए कि इस वक्त ऐसे हजारों प्रमाणपत्र चल रहे हैं, जिन प्रमाणपत्रोंका दुरुपयोग हो गया है उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। फिर भी इससे जाहिर होता है कि विधानमण्डलने, अपनी बुद्धिमानीका प्रयोग जनताके रास्तेमें कानूनसे बचनेके लिए प्रलोभन रखने में