किया है। संसार भरमें सभी प्रतिबन्धक कानूनोंका यही इतिहास है, जब प्रतिबन्ध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और गतिविधियोंपर हो तब तो यह खास तौरपर सही उतरता है।
प्रतिवेदन और भी पूर्ण होता यदि श्री स्मिथ अपने संक्षिप्त विवरणमें उन कारणोंको शामिल कर देते, जिनके आधारपर इच्छुक प्रवासियोंको उपनिवेशमें घुसनेसे रोका गया है। प्रतिवेदनमें एक चीज और भी छोड़ दी गई मालूम होती है। वह है कि, जो ब्रिटिश भारतीय इस विभागकी परीक्षा पास करने के बाद १८९७ के पश्चात् उपनिवेशमें प्रविष्ट हुए, उन्हें भी उपनिवेशसे निकाला जा रहा है, भले ही वे बस गये हों। नये आनेवालोंके सम्बन्धमें कानूनके कठोर परिपालनके विरुद्ध हम बहुत अधिक न भी कहें, फिर भी हम यह जरूर महसूस करते हैं कि जो लोग उपनिवेशमें बस चके हैं उन्हें खदेड़ देनेका प्रयत्न करके विभाग बहत ही ज्यादती करेगा। सभ्य मनुष्योंको अपराधियोंकी भाँति उपनिवेशसे बाहर निकाल देना—खास तौरसे तब, जब कि यह ज्ञात हो जाये कि जिस विभागने उन्हें उपनिवेशमें प्रवेश करने दिया वही उन्हें खदेड़ रहा है—शायद ही न्याय्य है। हम इस प्रश्नकी तहमें नहीं जायेंगे कि १८९७ के बाद वे कैसे और क्यों यहाँ जमने में सफल हुए। यद्यपि उन्होंने कानूनी शर्तोंको पूर्णत: पूरा नहीं किया, फिर भी यह हकीकत तो है ही कि वे इस देशमें चोरीसे नहीं आये, बल्कि श्री स्मिथके मातहत काम करनेवाले अफसरों द्वारा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल करनेके बाद प्रविष्ट हुए। इसलिए हमें विश्वास है कि जहाँतक उपनिवेशके ब्रिटिश भारतीय निवासियोंका सम्बन्ध है, श्री स्मिथ अपना हाथ रोक लेंगे, भले वे १८९७ के पहले उपनिवेशमें रहे हों या नहीं।
इंडियन ओपिनियन, १०-३-१९०४
११३. एशियाई व्यापारी-आयोग
ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंके सामने लड़ाईसे पहले उत्पन्न हुए निहित स्वार्थोंके बारेमें अपने दावे पेश करनेका एक बड़ा कठिन कार्य है और इस बातको देखते हुए कि आयोग अपनी प्रारम्भिक बैठक १४ तारीखको करनेवाला है, उसकी विचारणीय विषयावलीका अध्ययन करना बेजा नहीं होगा।
विषयावलीका क्षेत्र काफी व्यापक है, परन्तु इस मामले में विषयोंका इतना सामान्य होना कई पेचीदगियाँ और यह सवाल उत्पन्न करता है कि निहित स्वार्थ किसे माना जाये?
प्रथम तो, आयुक्तोंको
कुछ खास एशियाइयोंके मामलोंका विचार करना है और जाँच करके प्रतिवेदन देना है कि ऐसे व्यापारियोंकी संख्या कितनी है और पृथक बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेकी इजाजतके मामलेमें जिन निहित स्वार्थोंका उन्होंने दावा किया है वे किस प्रकारके और किस मूल्यके हैं।
इस प्रकार, आयुक्तोंको व्यापार करनेके सवालपर विचार करनेकी कोई सत्ता नहीं है। वे सिर्फ परमश्रेष्ठ लेफ्टिनेंट गवर्नरको प्रतिवेदन दे सकते है। विषयावलीका कड़ाईसे अर्थ किया जाये तो ज्ञात होगा कि उसे निहित स्वार्थोंकी कीमत आँकनेका या यह निश्चय करनेका भी अधिकार नहीं है कि वे किस प्रकारके हैं। वह तो इतनी ही सूचना