दे सकता है कि इन मुद्दोंपर एशियाइयोंको क्या कहना है। अगर ऐसा है तो यह प्रश्न बहुत सादा है। ब्रिटिश भारतीयोंको इतना ही बयान देना है कि वे किस तरह, कहाँ और कबसे व्यापार कर रहे हैं, उनके कोई साझेदार है या नहीं और वे अपनी साख और अपने कारोबारका कितना मूल्य आँकते हैं। क्योंकि निहित स्वार्थों में उनके उस मालकी कीमत ही नहीं, जिसे वे युद्ध छिड़नेके समय बेचते थे, बल्कि साखकी कीमत भी शामिल होगी। किन्तु सबसे बड़ी कठिनाई साखके मूल्यांकनमें ही आयेगी। इसके बाद सबसे कँटीला सवाल यह है कि वे एशियाई कौनसे हैं, जिन्हें अपने दावे दाखिल करनेकी इजाजत होगी। हम जानते हैं कि विचारणीय विषयावलीके अनुसार उनकी व्याख्या यह की गई है कि:
जो लड़ाई छिड़नेके समय और उसके ठीक पहले ट्रान्सवालके शहरोंमें पृथक बस्तियोंसे बाहर परवानोंके बिना व्यापार कर रहे थे।
इसलिए, किसी ब्रिटिश भारतीयको अपना दावा पेश करनेसे पहले यह साबित करना होगा कि:
१. वह ट्रान्सवालमें व्यापार कर रहा था;
२. वह पृथक बस्तियोंसे बाहर व्यापार कर रहा था;
३. उसके पास कोई परवाना नहीं था;
४. वह लड़ाई छिड़ने के समय व्यापार कर रहा था, और
५. लड़ाई छिड़नेके ठीक पहले भी व्यापार कर रहा था।
अगर हम भूल नहीं कर रहे है तो उपर्युक्त उद्धरणमें "के समय" के बाद "और" के बजाय "या" शब्द होना चाहिए, क्योंकि विधान-परिषदके सारें वाद-विवादसे यह इरादा प्रकट होता था कि जो लोग लड़ाई छिड़नेके समय या उससे ठीक पहले व्यापार कर रहे थे उन सबके अधिकारोंका लिहाज किया जाये। फिर भी हम देखते हैं कि आयोगकी विषयावलीके अनुसार दावेदारोंको यह सिद्ध करना पड़ेगा कि वे लड़ाई छिड़नेके समय ही नहीं, बल्कि उसके ठीक पहले भी व्यापार कर रहे थे। कठिनाईको ठोस रूपमें रखा जाये तो उसका अर्थ यह है कि उक्त विषयावलीके अनुसार यह काफी नहीं है कि कोई भारतीय, मान लीजिये, १८९९ के जून मासमें व्यापार कर रहा था और लड़ाईकी सम्भावनाके कारण ट्रान्सवाल छोड़कर चला गया था; परन्तु उसे यह भी साबित करना होगा कि वह ११ अक्टूबर १८९९ के दिन दरअसल व्यापारमें लगा हुआ था। और अगर इस विषयावलीका कड़ाईसे अनुसरण किया गया तो सैकड़ों दावेदारोंपर सहज ही झाडू फिर जायेगी।
हमने इन कठिनाइयोंका उल्लेख यह दिखानेके लिए किया है कि ब्रिटिश भारतीयोंके सामने जो काम है वह कितना खर्चीला है।
परीक्षात्मक मुकदमेकी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालयके सामने जल्दी ही शुरू होनेवाली है। अगर शुरू परिणाम भारतीय समाजके अनुकूल हुआ तो भारतीय व्यापारियोंके लिए जरूरी नहीं होगा कि वे अपने दावे पेश करनेका खर्च भी उठायें। परन्तु वे दुविधामें पड़े हुए हैं। यह निश्चित नहीं कि मुकदमेकी सुनवाई कब होगी। आयुक्तोंने इस मासकी १५ तारीख मुकर्रर की है, जो बदली नहीं जा सकती। इसके पहले दावे पेश हो जाने चाहिए। हमें मालूम हुआ है कि ब्रिटिश भारतीय संघने आयुक्तोंसे कार्रवाईको स्थगित रखनेकी प्रार्थना की है। यह प्रार्थना हमें बहुत ही माकूल मालम होती है। दूसरी ओर आयुक्तोंको एक कर्तव्य पालन करना है। उन्हें जल्दीसे जल्दी लेफ्टिनेंट गवर्नरके पास प्रतिवेदन भेज देना चाहिए। आयोगकी नियक्ति परीक्षात्मक