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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

क्षात्मक मुकदमा दायर होनेसे पहले हुई थी और यदि परमश्रेष्ठ लेफ़्टिनेंट गवर्नर सरकारको मुकदमेका फैसला होनेतक अपना विचार-विमर्श स्थगित रखनेका अधिकार नहीं देते, तो हम सहज ही समझ सकते हैं कि मामलेको स्थगित रखनेकी मांगका निर्णय करने में आयुक्तोंको विषम स्थितिका सामना करना पड़ेगा। फिर भी भारतीय व्यापारियोंसे यह आशा रखना महज निर्दयता होगी कि जब उन्हें परीक्षात्मक मुकदमेको ध्यानमें रखते हुए दावे पेश करनेसे होनेवाली असुविधा और खर्चसे बचनेकी पूरी उम्मीद है, तब वे अपने दावे दाखिल करें। इसलिए यह विश्वास रखा जाना चाहिए कि आयुक्त यह गुत्थी सुलझा सकेंगे और परमश्रेष्ठ लेफ्टिनेंट गवर्नरके लगाये हुए फर्जके अनुरूप भारतीयोंके साथ न्याय करने में समर्थ होंगे।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन', १०-३-१९०४

११४. युक्तिसंगत

श्री कॉन्स्टेबलके प्रस्तावके सम्बन्धमें जोहानिसबर्गके नगरपालिका-सम्मेलनकी[१] कार्रवाईको हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। उनका प्रस्ताव यह है कि तमाम एशियाई व्यापारियोंको हटाकर अलग बस्तियों में भेज दिया जाये, परन्तु मुआवज़ा केवल उनको ही दिया जाये जिनके पास लड़ाईसे पहले बाजारों या बस्तियोंसे बाहर व्यापार करनेके परवाने थे। इसपर हमारे सहयोगी साउथ आफ्रिका गार्जियनने एक बहुत युक्तिसंगत लेख लिखा है, जिसका तर्क अकाट्य है। गार्जियन ठीक ही कहता है कि अगर चीनियोंका, गुलामोंकी शक्लमें, चीनसे यहाँ हमला होनेवाला है तो मुटठी-भर ब्रिटिश भारतीयोंको परेशान करनेका कोई कारण नहीं हो सकता। यह दलील इस बातसे प्रबल हो जाती है कि स्वयं बॉक्सबर्गने ही, जिसकी ओरसे श्री कॉन्स्टेबल बोले, चीनी आक्रमणके पक्षमें निर्णय किया है। हम अपने सहयोगीका तर्क उसीके शब्दोंमें देते हैं:

इस आन्दोलनमें किसी सिद्धान्तकी प्रेरणाका अभाव इस बातसे सिद्ध होता है कि इसे बॉक्सबर्ग के व्यापारियोंने आगे बढ़ाया है, और वे ही ट्रान्सवालमें चीनियोंके यूथोंको, ऐसी पाबन्दियोंके साथ, जो उन्हें व्यापार करनेसे अलग रखें, ट्रान्सवालमें लानेका समर्थन करने में सबसे अधिक क्रियाशील रहे हैं। इन लोगोंको समाजके नैतिक कल्याणकी चिन्ता नहीं है। ये इतना ही चाहते हैं कि जो व्यापार इस समय भारतीयोंके पास जाता है वह इनको कोठियोंमें आने लगे। जहाँ ये एक लाख या इससे अधिक ऐसे मंगोलोंको लानेको हिमायत करते हैं, जिनसे राष्ट्रीय जीवन भ्रष्ट और पतित होगा, वहाँ यह आग्रह भी करते हैं कि थोड़े-से ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंको उनके व्यापारका विरोध न करनेके लिए बाध्य किया जाये और उन्हें विरोध न करनेसे जो घाटा रहे उसका ट्रान्सवालके लोग मुआवजा चुकायें। ट्रान्सवालके लोग एशियाइयोंको यूरोपियोंसे अलग रखने और जहाँतक हो सके, जातीय संकरताको रोकनेके लिए तो बखूबी ऐसा कर सकते हैं; किन्तु यदि चीनियोंको लाखोंकी संख्यामें आना है तो फिर ट्रान्सवालमें सभ्यताका ऊँचा स्तर कायम

  1. देखिये पृष्ठ १४३।