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११९. ब्रिटिश भारतीय उद्यम

हमारे सहयोगी नेटाल ऐडवर्टाइज़रने अपने विशेष संवाददाताका एक पत्र छापा है, जिसमें विक्टोरिया प्रान्तके ब्रिटिश भारतीय जमीन-मालिकोंके प्रश्नकी चर्चा की गई है।

नेटालमें भारतीयोंके पास कुछ जमीन रहे, चाहे वह थोड़ी ही हो, इस खयालसे ही संवाददाताको बड़ा रोष है। उसके दुर्भाग्यसे उसके पेश किये हुए तर्क और तथ्य सब यह जाहिर करते हैं कि उस प्रान्तमें भारतीयोंका बसना और जमीनोंका मालिक होना स्वयं प्रान्तके लिए बड़ा वरदान सिद्ध हुआ है।

उक्त पत्रमें जो तथ्य दिये गये हैं उनकी चर्चा करनेसे पहले हम एक भूल सुधार देना चाहते हैं। उसका लेखक समझता है कि भारतीयोंके हाथोंमें बहुत जमीन चली गई है। मगर हम कह सकते है कि अबतक जमीनके ज्यादातर हिस्सेके मालिक यूरोपीय ही हैं। विशाल बागान उन्हींके हैं और वे भव्य भवन भी, जो सब भारतीय मजदूरोंके कारण ही संभव हुए हैं। अवश्य ही जहाँ-तहाँ भारतीयोंके हाथों में जमीनके एक-दो टुकड़े होनेसे ही यह भय उचित नहीं हो जायेगा, जो लेखक पैदा करना चाहता है। कुछ भी हो, आखिर लेखकको भारतीयोंकी निन्दामें कहना क्या है? वह कहता है:

जो कोई जिलेमें सफर करेगा .. उसे यह स्वीकार करने में कठिनाई न होगी कि … यह जिला, कमसे-कम उपनिवेशका सबसे अधिक परिश्रमपूर्वक जोता-बोया जिला है। कुछ वर्ष पहले उत्तरी तटवर्ती पट्टी इतनी समृद्ध दिखाई नहीं देती थी। इतनी अधिक जमीनमें कामत होनसे पहले, सालके इस समयमें अमगेनी और टुगेलाके बीचमें जो कुछ दिखाई देता था वह था—गर्मीकी धूपसे भूरी पड़ी घासका बड़ा मैदान। आज कुदरती घासका क्षेत्र नगण्य होता जा रहा है और वह बरसातकी बहुतायतके कारण बसन्तकी हरियालीकी तरह हरा-भरा है। और जब फसलें पकनेवाली हैं तब लोग कहते हैं कि इतनी अनाजदार फसलें पहले कभी नहीं हुई थीं।

कोई भी इससे यही सोचता कि इन हालातपर बधाई दी जानी चाहिए; परन्तु लेखक इन्हें खेदजनक समझता है, क्योंकि प्रान्तकी खुशहालीका कारण भारतीय उद्यम है। उसे प्रदेशका बंजर और उजाड़ होना तो पसन्द होता, लेकिन हराभरा और उपनिवेशको अच्छी आमदनी देनेवाला होना पसन्द नहीं है, जिसमें सैकड़ों रईसी ठाठवाले यूरोपीय किसानोंका मज़ा करना सम्भव हुआ है। इसके अलावा लेखक स्वीकार करता है कि बहुतसी जमीन भारतीयोंको यूरोपीय लोगोंने पट्टेपर दी है। इसका अर्थ यह है कि यूरोपीय किसान जबतक भारतीय कृषकोंको खेत जोतनेके लिए नौकर न रखें तबतक वे स्वयं जमीनसे लाभ नहीं कमा सकते। फिर, यह भी याद रखना चाहिए कि अगर कोई भारतीय किसी जमीनका मालिक बन भी सका है तो मूल यूरोपीय मालिकोंके जमीन बेच देनेके कारण ही। और, यद्यपि हमारे सहयोगीके संवाददाताने इस कारण उनको देशद्रोही बताया है, फिर भी निष्पक्ष लोग यह समझेंगे कि इससे बेचनेवालोंको ही नहीं, बल्कि सामान्य समाजको भी लाभ हुआ है। क्योंकि बेचनेवालोंने भारतीयोंको जमीनपर काम करनेका मौका देकर उपनिवेशको समृद्धिको बढ़ाया है।

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