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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय


हमारी नम्र सम्मतिमें, संवाददाताने जो तर्क और तथ्य पेश किये हैं उनसे खेदजनक मानसिक दुर्बलता और आर्थिक नीतिको समझनेकी शक्तिका अभाव प्रकट होता है। अच्छे आचरणवाले, निर्व्यसनी और परिश्रमी लोग किसी भी समाजको मूल्यवान सम्पत्ति समझे जाते। उपनिवेश ही 'न खाये, न खाने दे,' की नीतिसे संचालित हो रहे हैं। इसीलिए वहाँ हमें इस प्रकारके लोगोंके विरुद्ध चिल्लाहट सुनाई देती है। अन्ततः हमारा खयाल तो यह है कि सादे जीवन और परिश्रमी लोगोंसे रहित समाज बहुत समयतक टिक नहीं सकेगा, और जिस भूमिपर वह रहता है उसके साधनोंसे पूरा लाभ भी नहीं उठा सकेगा।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-३-१९०४

१२०. जोहानिसबर्ग में प्लेग[१]

भारतीय समाजका महान कार्य लगभग दो महीने हुए, जोहानिसबर्गमें प्लेगका पता लगा था। (यह कहना सही नहीं होगा कि प्लेग फैल गया है)। भारतीयोंने अधिकारियोंको चेतावनी[२] दी थी कि यदि नगर परिषदके अधिकार कर लेनेके बाद तथाकथित अस्वच्छ क्षेत्रको जो हालत हो गई है उसका उपाय न किया गया तो उन्हें महामारीको अपेक्षा करनी ही होगी। क्योंकि, २६ सितम्बरके बाद नगर-परिषदने किरायेके मकानोंके आकारका लिहाज रखे बिना उस इलाकेमें किरायेदार रख लिये थे। इसलिए वहाँ इतनी भीड़-भाड़ हो गई है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। परिषद द्वारा बाड़ोंको साफ न रख सकनेके कारण इस गन्दगीमें और वृद्धि हो गई है। मकान-मालिकोंके हाथोंसे जिम्मेदारी छीन ली जानेके कारण वे एक-एक बाड़ेमें ५०-५० या इससे भी ज्यादा लोगोंके रहनेपर काबू नहीं रख सके। उदाहरणके लिए, गत वर्ष २६ सितम्बरसे पहले भारतीय बस्तीमें ९६ मकान-मालिक ठीक सफाईके लिए जिम्मेदार थे। नगर परिषदने नियन्त्रण अपने हाथमें ले लिया तो इसका मतलब यह था कि उसे कमसे-कम ९६ मेहतर रखने चाहिए थे। यह परिषद कर नहीं सकती थी, या करना नहीं चाहती थी। कुछ भी हो, जो इलाका पहले कभी इतना अस्वच्छ नहीं था कि उसके अधिग्रहणकी जरूरत हो, उसे अब परिषदने ऐसा बना दिया है। इसीलिए उपर्युक्त चेतावनी दी गई थी। इसपर, हाल ही हवामें असाधारण नमी आ गई, जिससे तेज निमोनिया फैल गया, जो आसानीसे संक्रामक हो सकता है। और, इस रोगने अस्वच्छ क्षेत्रमें अनुकूल स्थिति पाकर बहुत ही भयंकर रूप धारण कर लिया, और यह निमोनियावाला प्लेग बन गया। ज्योंही लोग ऐसे बीमार पड़े त्योंही अधिकारियोंको फिर सूचना दी गई। परन्तु चार दिनकी जाँचके बाद वे इस नतीजेपर पहुंचे कि ये प्लेगके रोगी नहीं हैं। चार दिनके बाद संकटकी स्थिति आ गई। कुछ भारतीय मरणासन्न अवस्थामें बस्तीमें लाये गये। मामलेकी खबर फिर अधिकारियोंको दी गई। परन्तु अब समाजने मामला अपने हाथमें भी ले लिया। उसने अनुभव किया कि दफ्तरी ढरें-लाल फीते-के कारण शायद तुरन्त कार्रवाई न हो सके। बीमारोंको तत्परतासे

  1. यह "हमारे निजी संवाददातासे प्राप्त" रूपमें छपा था।
  2. देखिए "पत्र: डॉ० पोर्टरको," फरवरी ११, १९०४।