परिणामकी कल्पना नहीं की होगी, क्योंकि उपनिवेश-सचिव और लॉर्ड मिलनरने भी बार-बार कहा है कि सरकार उन भारतीयोंके व्यापारको छेड़ना नहीं चाहती, जो लड़ाईसे पहले व्यापार कर रहे थे—चाहे उनके पास परवाने रहे हों या नहीं। जिन थोड़ेसे भारतीयोंने १८९९ में किसी तरह व्यापारके परवाने हासिल कर लिये थे उनमें, और जिन्होंने परवाने तो हासिल नहीं किये थे, परन्तु फिर भी व्यापार कर रहे थे उनमें, बिलकुल फर्क नहीं हो सकता। बोअर सरकारके खयालसे वे ऐसा गैरकानूनी तौरपर कर रहे थे; परन्तु उस गैरकानूनी कार्रवाईको ब्रिटिश सरकारने पैदा किया था और वही उसका पोषण कर रही थी, क्योंकि उसकी नजरमें १८८५ का कानून ३ सर्वथा घृणास्पद था। इसलिए लड़ाईसे पहलेके १५ वर्षों में भारतीयोंको ब्रिटिश संरक्षणमें विश्वास रखने दिया गया; यहाँतक कि वे जब जीमें आता ट्रान्सवाल छोड़कर चले जाते और फिर वापस आ जाते, कारोबार स्थापित करते, उसे बेच देते और फिर जब चाहते तब पुनः स्थापित कर लेते थे। इसलिए पृथक बस्तियोंसे बाहर कानूनके विरुद्ध व्यापार करनेके अधिकारमें एक निहित स्वार्थ पैदा कर दिया गया था, और यद्यपि यह निःसन्देह एक असाधारण स्थिति है, फिर भी है तो एक सच बात। जब यह स्थिति मौजूद थी, तभी लड़ाई छिड़ गई, और "लड़ाईके कारणोंमें एक १८८५ का कानून ३ भी था।" इसलिए भारतीयोंका यह सोचना बहुत स्वाभाविक था कि लड़ाई में जीत होनेपर यह कानून खत्म हो जायेगा; और यह निष्कर्ष भी निकलता है कि यदि ब्रिटिश भारतीय १८९९ के पहले कानून तोड़कर व्यापार कर सकते थे तो अब तो उनका दावा और भी प्रबल है; क्योंकि इस बातका जरा भी महत्त्व नहीं कि वे लड़ाईके ठीक पहले व्यापार कर रहे थे या नहीं। कसौटी यह है कि, लड़ाईसे पहले वे कभी ट्रान्सवालमें व्यापार करते थे या नहीं; और अगर करते थे तो कमसे-कम अब भी उन्हें उस नीतिके अनुसार व्यापार करनेका हक है, जिसका अनुसरण ब्रिटिश सरकारने बोअर-हुकूमतके दिनोंमें किया था; क्योंकि जो भी भारतीय लड़ाईसे पहले ट्रान्सवालमें प्रवेश करता था और अपना व्यापार जमा लेता था, वह जानता था कि वह जब चाहे तभी व्यापार स्थापित कर सकता है और उसे भंग करके फिर जमा सकता है। इसलिए हम महसूस करते हैं कि यदि ब्रिटिश भारतीयोंके साथ न्याय करना है, तो आयोगकी विषयावलीको बहुत व्यापक बनाना पड़ेगा। एशियाइयोंके पर्यवेक्षक श्री बर्जेसने आयोगके सामने गवाही देते हुए साफ-साफ बयान किया था कि लड़ाईके बाद ऐसे बहुत कम भारतीयों (३) को परवाने दिये गये थे, जो प्रमाण देकर उनको यह सन्तोष नहीं करा सके कि वे लडाईसे पहले पृथक बस्तियोंके बाहर ट्रान्सवालमें व्यापार कर रहे थे। इसलिए जिन भारतीयोंको पृथक बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने इस वक्त मिले हए हैं, वे सब (जैसा कि ब्रिटिश भारतीय संघ हमेशा कहता रहा है) श्री बर्जेसके बयानके अनुसार व्यापार करने के अपने अधिकारोंको पहले ही साबित कर चुके हैं। यद्यपि इसमें पुनरुक्तिका खतरा है, फिर भी हम कह सकते हैं कि इन परवानोंको जारी करते समय कोई शर्त नहीं लगाई गई थी और न्याय और अन्यायकी हमारी दृष्टिके अनुसार, यदि एक भी ब्रिटिश भारतीय व्यापारीको, जो इस समय पृथक बस्तियोंके बाहर ट्रान्सवालमें व्यापार कर रहा है, छेड़ा गया तो यह अन्याय होगा।
इंडियन ओपिनियन, २-४-१९०४