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१२४. नेटालमें विक्रेता-परवाना अधिनियम

उस दिन वीनेनमें सात भारतीय व्यापारियोंने परवाना-अधिकारीके निर्णयके विरुद्ध स्थानिक निकायमें अपील की। परवाना-अधिकारीने विक्रेता-परवानोंकी सातों अर्जियाँ नामंजूर थीं। जो शहादत पेश की गई उससे मालूम होता है कि उक्त व्यापारियोंमें से एक आठ सालसे दूकान कर रहा है। दूसरे भी पुराने दूकानदार है, जिनके पास कई सालसे व्यापार करनेके परवाने हैं। चूंकि परवाना-अधिकारीने फिरसे परवाने देनेसे इनकार कर दिया था, इसलिए स्थानीय निकायमें अपील की गई थी। एक अर्जदारने इस आशयकी गवाही दी कि उसके पास आठ वर्षसे परवाना है और उसका बही-खाता उसके समय-समयपर रखे हुए कच्चे हिसाबके आधारपर उसका अंग्रेज मुनीम लिखता है। दूसरोंके बही-खातोंकी भी यही प्रणाली है। दो दिनतक इन मामलोंकी सुनवाई करनेके बाद निकायने फैसला दिया कि चूंकि उसको उनके हिसाब रखने के तरीकेसे सन्तोष नहीं हुआ है, इसलिए उसने परवाना-अधिकारीका फैसला बहाल रखा है। अगर व्यवस्था इसी ढंगकी रही तो हमें बहुत अन्देशा है कि लगभग प्रत्येक भारतीय दूकानदारका सफाया हो जायेगा। इस बातको सभी जानते हैं कि छोटे दूकानदारोंकी बही-खाता रखने योग्य स्थिति नहीं होती। उनका लेन-देन सब नकद होता है। वे क्रय और विक्रय बहुत-कुछ नक़द करते हैं और उन लोगोंसे बही-खाता रखनेकी अपेक्षा करना ही भारी सख्ती होगी। प्रस्तुत मामलेमें इन लोगोंने अंग्रेजी भाषामें बही-खाता रखनेका प्रयत्न किया है। स्पष्ट है कि निकाय उनसे यह अपेक्षा करता है कि वे योग्य मुनीमोंकी मार्फत रोजमर्राका बही-खाता रखें। इसका अर्थ है ६ या ७ पौंड या इससे भी अधिक माहवारी खर्च। जो छोटेछोटे व्यापारी अपने व्यवसायमें १०-१५ पौंड माहवार मुश्किलसे बचा पाते हैं वे शायद इस प्रकारका महँगा शौक नहीं कर सकते। यदि स्थानीय निकाय इस तरहके स्पष्टतः बेहूदा नियमका आग्रह रखेंगे कि अंग्रेजी भाषामें योग्य मुनीमों द्वारा ही दैनिक बही-खाता लिखाया जाये, तो इसका नतीजा होगा उपनिवेशमें कमसे-कम छोटे भारतीय व्यापारियोंका सरलतासे खात्मा। क्या विक्रेता-परवाना अधिनियम इस दृष्टिसे ही पास किया गया था? निकायके फैसलेसे कानूनमें संशोधनका प्रश्न फिरसे उठ खड़ा हुआ है। जब विक्रेता-परवाना अधिनियम पास किया गया था उस समय ही नगरपालिकाओंको दी हुई सत्ताका दुरुपयोग करनेकी प्रवृत्ति मौजूद थी। उसके बाद श्री चेम्बरलेनका उलहना आया और उसका वांछित परिणाम भी हुआ; परन्तु वह केवल क्षणिक था। इसलिए जबतक विक्रेता-परवाना अधिनियममें कुछ ऐसे निश्चित अधिकार शामिल नहीं किये जाते जिनसे पीड़ित पक्ष सर्वोच्च न्यायालयतक पहुँच सके, या उन कारणोंकी व्याख्या नहीं कर दी जाती जिनसे परवाने नामंजर किये जा सकते हैं, तबतक ऐसे मामले, जैसे हमने ऊपर बताये हैं, समय-समयपर होते ही रहेंगे। यदि लोगोंके निहित स्वार्थोंका आदर करना है तो यह मामला सरकारके गम्भीर विचार करने के लायक है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २-४-१९०४