३० अप्रैलके दिन परिषदको अधिग्रहणका अधिकार मिला था। उस समय उसे अधिकार था और उसका स्पष्ट कर्तव्य भी था कि वह, जिन लोगोंको बेदखल किया जाना था उनके बसाने के लिए कोई स्थान निश्चित करती। वह अपने कर्तव्यमें चूक गई। उसने ६ जून १९०३ को अधिग्रहणके इरादेकी सूचना दी, परन्तु वह अस्वच्छ क्षेत्रके लोगोंके बसाने के स्थानकी व्यवस्था फिर भी न कर सकी। २६ सितम्बर १९०३ को उसने कब्जा ले लिया। उस दिन वह अगर हरएक किरायेदारकी मालिक-मकान न बन जाती और दस्तूरी (कमीशन) पानेवाले अपने करसंग्राहकोंको यह अधिकार न दे देती कि जितने भी किरायेदार अर्जी दें उन सबको वे मकान किरायेपर दे सकते हैं, और जैसा वह अब दवावमें आकर कर रही है, उसी तरहका व्यवहार उस इलाकेके साथ करती, तो क्या करदाताओंको यह २० हजार पौंडका जुर्माना देना पड़ता? क्या भारतीयोंकी ही सही, कीमती जानें जातीं? क्या स्मृतिके रूपमें बचे सिर्फ एक सदस्यको छोड़कर एक सारेके-सारे परिवारका सफाया हो जाता?
इतनेपर भी खास तौरसे बाहरी जिलोंमें, कष्टोंकी उग्रता भारतीयोंको ही महसूस कराई जा रही है। उनको मंडियोंमें काम करनेसे वंचित किया जाता है और अपनी रोजी कमानेसे रोका जाता है। अगर वहाँ प्लेग न हो तो भी उन्हें सूतक (क्वारंटीन) में रखा जाता है या, कमसे-कम, शहरोंसे बहुत दूर एकान्त शिविरोंमें भेज दिया जाता है। उनके सब कामोंको मैं उचित नहीं बताना चाहता। इसके विपरीत, मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरे देशवासियोंमें से गरीब तबकेके लोग देखरेखके बिना, सफाईके नियमोंका पालन नहीं करते। परन्तु मेरा यह निवेदन जरूर है कि वे लोक-स्वास्थ्यके रक्षक नहीं हैं। वे अपने कर्तव्य-पालनमें चूके हैं, तो व्यष्टिगत रूपमें, और उसी रूपमें उन्होंने कष्ट भी भोगे हैं। लोक-स्वास्थ्य समितिका काम है कि वह स्वास्थ्यके नियमोंका पालन कराये, न कि उन्हें बुरी तरहसे तोड़े, जैसा कि उसने पिछले २६ सितम्बरसे किया है।
मैंने आपकी शिष्टताका लाभ सत्य, लोक-कल्याण और अपने देशवासियोंके तिहरे हितोंके नामपर उठाया है।
आपका, आदि,
मो० क० गांधी
इंडियन ओपिनियन, ९-४-१९०४