१३७. प्रिटोरिया नगर-परिषद और ब्रिटिश भारतीय
प्रिटोरियाकी नगर परिषद वतनी बस्तियोंपर पूरा नियन्त्रण चाहती है। जाहिरा तौरपर यह प्रस्ताव बिलकुल निर्दोष मालूम होता है और हम नहीं जानते कि नगर परिषदके अधीन भारतीयोंकी दशा पहलेसे बहुत बुरी हो जायेगी। साथ ही, इस समय एक केन्द्रीय सत्ता है और उसकी कठोरता में भी एक-सी कार्रवाईकी सम्भावना है। लेकिन प्रिटोरियाकी नगर परिषदके प्रस्तावपर यदि अमल हुआ, तो भारतीय न सिर्फ पूरी तरह उसकी दयापर निर्भर हो जायेंगे, बल्कि जो नियम वतनियोंपर लागू होते हैं उन सबके भी शिकार होंगे। यह हो सकता है कि वतनी बस्तियोंके नियन्त्रणके लिए जो नियम बनाये गये हैं वे आवश्यक हों, क्योंकि सभी या लगभग सभी वर्तनी मजदूर वर्गके होते हैं; लेकिन ब्रिटिश भारतीयोंके लिए वे बहुत कष्टप्रद होंगे। इस प्रस्तावका उपनिवेश सचिवने यह उत्तर भेजा है:
मुझे आपको सूचित करनेका सम्मान प्राप्त है कि चूंकि दोनों बस्तियाँ नगर परिषदके अधिकारक्षेत्रमें स्थित हैं, इसलिए उनपर परिषदका उतना ही नियन्त्रण है, जितना कि नगरके किसी और भागपर। सरकार कोई असाधारण नियन्त्रण नहीं रखती; जहाँतक सिर्फ एशियाई बस्तीका सम्बन्ध है, वह मकान मालिक है, जो विभिन्न अर्जदारोंके बीच बाड़ोंका बँटवारा करती है। मुझे विश्वास है, आप जानते होंगे कि ये पट्टे इस शर्त पर दिये जाते हैं कि पट्टेदार नगरपालिकाके सब उपनियमोंका पालन करेंगे और नगर- पालिकाके सब कर अदा करेंगे। जहाँतक केपकी बस्तीका सम्बन्ध है, मुझे पता नहीं है कि किस सिद्धान्तपर बाड़ोंके पट्टे दिये जाते हैं और मेरा सुझाव है कि आप इस विषयमें वतनी मामलोंके विभागसे लिखा-पढ़ी करें। यह अर्जी, कि एशियाई और केपवालोंकी बस्तियोंसे होनेवाली आमदनी नगरपालिकाको हस्तान्तरित कर दी जाये, मैंने अर्थसचिवके पास विचारार्थ भेज दी है और उनसे कहा है कि वे इस विषयमें सीधे आपको लिखें।
नगर परिषदने प्रत्युत्तरमें कहा है कि वह भारतीय बस्ती और केपकी बस्तीका उन्हीं शर्तों पर नियन्त्रण करना चाहती है, जो वतनी बस्तीके लिए हैं। यह ध्यानमें रखना चाहिए कि नगर परिषदको वतनी बस्तियोंके बारेमें नियम बनानेका विशेष अधिकार प्राप्त है और स्पष्टत:, ठीक वही अधिकार वह भारतीयोंके सम्बन्धमें चाहती है। जब नगर-निगम अध्यादेश पास हुआ तब यह मुद्दा उठाया गया था, परन्तु सरकारने इसे स्वीकार न करनेका फैसला किया था। और जबतक कानूनकी किताबमें १८८५का कानून ३ मौजूद है तबतक यह समझना कठिन है कि विशेष कानून बनाये बिना नगर परिषदको वांछित अधिकार कैसे मिल सकता है। एक ओर ब्रिटिश भारतीयोंकी तरफसे १८८५ के कानून ३ पर घोर आपत्ति की जा रही है, और हमारे खयालसे वह ठीक ही है; दूसरी ओर उसके पूरी तरह लागू होनेसे प्रिटोरिया नगर-परिषद और ट्रांसवालकी अन्य नगर-परिषदोंको भी सन्तोष नहीं होता। लॉर्ड मिलनर बखूबी कह सकते हैं कि वे दुतर्फा गोलाबारी के बीचमें हैं। हम तो सिर्फ इतनी आशा ही कर सकते हैं कि वे उन नगर परिषदों और दूसरे भारतीय-विरोधी महाशयोंके सामने घुटने नहीं टेकेंगे जो, अगर उनका वश चले तो, ट्रान्सवालसे सारी ब्रिटिश परम्पराओंको मिटा कर ही रहेंगे और प्रिटोरियामें ब्रिटिश झंडे यूनियन जैकको केवल थोथा दिखावा ही रह जाने देंगे और