एक रोगकी तरह है—वह होती तो पल भरमें है, परन्तु उसके हटाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। परन्तु पूर्वग्रहके दमनके रूपमें पुरस्कारकी बात ही हम क्यों सोचें? क्या स्वच्छता स्वयं अपना पुरस्कार नहीं है? क्या प्लेगके दुबारा हमलेको रोक देना एक अमूल्य वरदान नहीं होगा? क्या हमारा सफाई-निरीक्षकों और उनके नियमोंसे पीड़ित किया जाना बन्द नहीं हो जायेगा; क्योंकि उनका कोई उपयोग ही नहीं रहेगा? धीरे-धीरे जब हम सफाई और तन्दुरुस्तीको केवल जबानी जमाखर्च नहीं, बल्कि अपने जीवनका अंग बनाकर अपनी स्थिति मजबूत कर लेंगे, तब पूर्वग्रह—जहाँतक इसका आधार वह लांछन है—जाता रहेगा। और फिर, स्वास्थ्यके नियमों का पालन करनेकी हमारी इतनी ख्याति हो जायेगी कि वह हमेशा हमारा साथ देगी। हम चाहते हैं, हमारे देशवासी हाल में जिस परीक्षणसे गुजरे हैं, उससे यह सबक लें। अत्युक्तिपूर्ण दोषारोपणका विरोध करना हमारे लिए अच्छा है। उनके आधारपर कानूनोंका बनाया जाना रोकनेके लिए एड़ी-चोटीका जोर लगाना हमारा कर्त्तव्य है। परन्तु हमारा उतना ही फर्ज यह भी है कि हम उन आरोपोंकी बारीकीसे जाँच करें, उनमें जो आंशिक सत्य हो, उसे स्वीकार करें और हममें जो बुराई हो उसे सुधारने की कोशिश करें। इस तरह, और केवल इसी तरह, हम अपने पड़ोसियोंकी दृष्टिमें ऊँचे उठ सकते हैं।
१३९. क्लिपस्प्रूट फार्म[१]
जोहानिसबर्गकी नगरपालिकाने प्लेगकी रोकथामके लिए बहुत खर्च करके पृथक बस्तीमें रहनेवाले भारतीयोंके लिए एक महीने पहलेसे क्लिपस्प्रूट शिविर नियत किया है। इस शिविरकी शुरुआत में लोगोंको कई तरहकी कठिनाइयाँ उठानी पड़ी थीं। लेकिन वे कठिनाइयाँ केवल खाने-पीने और रहने सम्बन्धी थीं। अब खानेके लिए दी जानेवाली खुराक गरीब आदमीको ही दी जाती है, और सब लोगोंके लिए शहरमें आनेको छूट मिली है, लेकिन उसके कारण आदमीको कुछ निश्चिन्तता हुई हो, ऐसा मालूम नहीं होता। क्योंकि जो लोग शहमें भारी किराया देनेका सामर्थ्य रखते हैं, उन्हींको इस छूटका लाभ मिल सकता है। हरएक आदमीको शहरमें जगह मिल जाये, यह सम्भव नहीं है। भारतीयोंकी स्थितिसे लाभ उठाकर घर-मालिक असाधारण किराया माँगते हैं। उतना किराया गरीब आदमी दे ही नहीं सकता, फिर भी गरीबोंने पैसेकी तंगी बरदाश्त करके कुछ घर किरायेसे लिये हैं। लेकिन नगरपालिका उन घरोंकी जाँच करके उन्हें पास करे, तभी शहरमें रहने आया जा सकता है। तबतक क्लिपस्प्रूटका कारावास भोगनेकी जरूरत रहेगी, ऐसा मालूम होता है।
घरको पास करनेकी बात कोई ऐसी-वैसी नहीं है। आदमी जब इस गोरखधंधे में से बाहर निकलता है, तो ऐसा लगता है, मानो पूरी तरह निचोड़ लिया गया हो। हालत ऐसी मालूम होती है, मानो किसीने मुँहपर तमाचा मारा हो, पर समयको देखकर आदमी खामोश रह जाता है। वह मन-ही-मन परेशान होता है, पर मुँहसे कुछ कह नहीं सकता। जब वह अपने पाँवपर खुद ही कुल्हाड़ी मारता है, तो उससे उत्पन्न दुःख दूसरोंके सामने कैसे कह सकता है? घरके पास हो जानेपर वह दौड़ता-दौड़ता क्लिपस्प्रूट जाता है। लेकिन पूछताछ करनेपर पता चलता
- ↑ देखिए, आत्मकथा (गुजराती) पृष्ठ २९५ ।