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है कि अभी उसकी अर्जी शिविरके अधीक्षक (सुपरिटेंडेंट) के पास पहुँची नहीं है। वह वापस जोहानिसबर्ग आता है, और इस बारेमें जाँच करनेपर मालूम होता है कि इसके मामलेमें अधीक्षकका कोई कसूर नहीं है। लेकिन जब मनुष्यका मन चिन्तातुर होता है तब उसके मनमें कल्पनाएँ उठती हैं। और यद्यपि यह कहा नहीं जा सकता कि वे कल्पनाएँ बिलकुल खोटी होती हैं, तो भी मालूम ऐसा होता है, कि अधिकांश मामलोंमें वे बेबुनियाद होती हैं। एक ओर पैसे पास नहीं होते, दूसरी ओर शिविरसे छुटकारा पा जानेकी इच्छा रहती है। एक तरफसे घर- मालिक जेबमें पेशगी पैसे लेकर बैठा है, इसलिए किराया चढ़ रहा है, दूसरी तरफ नगर-पालिकाने प्लेगकी रोक-थाम की है। इस कारण सन्तोष मानकर तृप्त मनुष्यकी तरह पेटपर हाथ फिराते हुए वह अपना कर्त्तव्य धीमे-धीमे पूरा करती है, और उतावलीमें आये हुए आदमीको 'उतावला सो बावला' कहकर धीरज बँधाती है। जब गरीब लोगोंमें धीरज नहीं होता, तब वे धीरज धरें कैसे? हकीकत ऐसी है, इसमें दोष किसे दिया जाये, कुछ सूझ नहीं पड़ता। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि आदमीको दुःखके समय एकदम आकुल होकर दूधको पानी समझकर फेंक नहीं देना चाहिए, और दूधके फेंक दिये जानेपर कुम्हार जिस तरह अपने गधेपर रिस उतारता है उस तरह नगरपालिकाको दोष नहीं देना चाहिए। सही रास्ता पकड़ा न जाये, और गलत रास्ता पकड़ने से गड्ढे में गिरा जाये, तो तकदीरको दोष देकर रोनेसे दूसरेको दया नहीं आती। हम जानते हैं कि शहरमें रहनेकी जगह मिलना मुश्किल है, तो अपने लिए खास जगह निश्चित करनेकी अर्जी नगरपालिकासे करनी चाहिए। अगर इसपर भी नगरपालिका न माने, तो सरकारसे मुनासिब रोजी देनेकी माँग करके रेलवेमें काम करनेके लिए अर्जी देनी चाहिए। और अगर सरकार रोजके पाँच-छ: शिलिंग देना कबूल करे, तो रेलवेका काम क्यों नहीं करना चाहिए, सो कुछ समझ में नहीं आता। जो मालदार लोग हैं, उन्हें तो आजकी हालत में थोड़ी भी चिन्ता करनेकी जरूरत नहीं है। परन्तु पृथक बस्तीमें रहनेके कारण मालदार लोग भी कम किराया देनेके आदी हो गये हैं। इसलिए उन्हें भी अधिक भाड़ा देना शायद महीने-दो महीने के लिए ही पुसायेगा, अधिक समयतक वे भी उसे सहन नहीं कर पायेंगे। फिर भी पैसेवाले लोग तो अपनी-अपनी मर्जीके मुताबिक घर खोजकर अपना काम चलायेंगे, लेकिन गरीबका वली कौन है? ऐसे गरीबोंके लिए सिर्फ दो उपाय हैं:

(१) नगरपालिकासे प्रार्थना की जाये, कि वह भारतीयोंके लिए जगह निश्चित करे; और तबतक दुःख उठाकर राह देखी जाये।

(२) अगर सरकार मुनासिब रोजी दे, तो कुछ समयके लिए रेलवे में काम करने जायें। बाद में शिविरसे छुटकारा पानेपर तो सब ठीक ही होगा।

हमें तो यही उपाय उचित मालूम होता है, क्योंकि जितने कम खर्चसे पृथक बस्ती में रहनेको मिला उतने खर्चसे आजकी हालत में रहना सम्भव नहीं है। फिर हम अधिक भाड़ा देनेके अभ्यासी नहीं हैं । तिसपर भी अगर लोग अधिक भाड़ा देनेको राजी हों, तो भी जब घर ही नहीं हैं, तो क्या हो? इन गोरे लोगोंके देशमें भारतीयोंपर दुःखके बादल तो सदा ही रहेंगे, और जहाँ हम कसूरवार हों, वहाँ तो समझ लीजिए कि हमारे सिर घनघोर बादल घिरेंगे। प्लेगके इस आरोप से छूटने में समय लगेगा। जिस तरह हमने लड़ाई में मदद की थी उसी तरह दूसरे किसी समय

१. यह इशारा भारतीय आहत सहायक दलकी ओर है, जिसे गांधीजीने बोअर युद्ध के दिनोंमें संगठित किया था।