मदद करके हम अपनी राजभक्ति प्रकट करेंगे, तभी प्लेगके पापसे हमें छुटकारा मिलेगा। और यद्यपि हमें पूरी नसीहत मिल चुकी है, फिर भी ऐसा नहीं लगता कि हमने उसमेंसे कुछ भी सार ग्रहण किया है। उदाहरणार्थ, लोग शराब पीनेके लिए शिविरमें भी शहरसे बोतलें ले जाते हैं। शिविरके अधीक्षकको ऐसा शक हो जानेसे उसकी जाँचके लिए आज हर रोज आदमीको रातके समय शिविर-स्टेशनके सामने कैदीकी तरह एक कतारमें खड़े होकर अनुचित चौकसी के अधीन होना पड़ता है। एकके कारण सबको दुःख सहन करना पड़ता है। यही हाल दूसरी सब बातोंमें है। पाँच-पचास लोगोंको रहने के लिए घर मिलेंगे। पाँच-पचास आदमी नेटालमें चले जायें, लेकिन क्या इससे छः हजार भारतीय भाइयोंका दुःख दूर हो जायेगा?
डॉक्टर नेटाल जानेवाले लोगोंकी जांच बहुत बारीकीसे करते हैं। और कुछ लोगोंका तो यह कहना है कि स्त्रियोंकी जाँच अनुचित रीतिसे, लाजकी मर्यादा न रखते हुए, की जाती है। लोगों का यह कहना बिलकुल बेबुनियाद है। लोग जो चाहें, कहें; उन्हें कोई रोक नहीं सकता। समूचे गाँवका मुँह तोपा नहीं जा सकता। ऐसा मालूम होता है कि रजको गज बनाना, यह तो भारतीयोंको कुदरतसे मिली एक देन है। कोई भी आदमी सच क्या है और झूठ क्या है, इसकी जाँच किये बिना कानसे सुनी बातको सच मान लेता है।
आखिर हमें यह तो कबूल करना ही होगा कि शिविर आरामसे सोनेकी जगह नहीं है, वह एक जंगल है, और वहां लोगोंका दुःखी होना स्वाभाविक है, क्योंकि तम्बूमें रहनेसे पेचिशकी बीमारी एक मामूली बीमारी बन गई है। और अगर लोगोंको रहनेके लिए अच्छी जगह नहीं मिलेगी, तो अनुमान यह होता है कि लोग अधिक दुःखी होंगे।
इंडियन ओपिनियन, ३०-४-१९०४
१४०. ईस्ट लन्दन[१]
ईस्ट लंदनकी नगरपालिका भारतीयोंके विरुद्ध लड़ाईमें संलग्न है और अनेक सम्पन्न भार-तीयोंको सूचना भेज दी गई है कि वे अपने कब्जेके मकान खाली कर दें और पृथक बस्ती में चले जायें। इन सूचनाओंका उद्देश्य भारतीयोंको केवल जलील करना और उन्हें प्रमाणपत्र लेनेको विवश करके धीरे-धीरे शहरसे बाहर निकाल देना है। नगरपालिकाके अधिकार बहुत व्यापक हैं। १८९५ के कानून १२ की धारा ५, जो ईस्ट लन्दनकी नगरपालिका और शासनकी व्यवस्था करनेवाले कानूनोंमें संशोधन और वृद्धि करनेके लिए है, ऐसी बातें करनेकी सत्ता देती है जिनमें ये भी है:
(१) यह कानून वस्तुतः भविष्यके अनुमानके आधारपर पास किया गया था, क्योंकि सन् १८९५ में भारतीयोंकी आबादी बहुत थोड़ी थी।
(२) यह कानून पहले कभी लागू नहीं किया गया था और यह भारतीयोंकी इच्छापर छोड़ दिया गया था कि वे बस्तियोंमें रहे या न रहें।" ( इंडिया ऑफिस, ज्यूडिशियल एंड पब्लिक रेकर्डस : १२३६)
- ↑ इस वक्तव्यकी एक प्रति भारतमन्त्रीके पास भेजते हुए दादाभाई नौरोजीने अपने २५ मईके पत्र में लिखा था: “मेरे पत्र-प्रेपकने सर मंचरणी मेरवानजी भावनगरीके लोकसभा २० अप्रैलको किये गये प्रश्नोंका हवाला देते हुए लिखा है कि जिन दो मुद्दोंपर ध्यान रखना है वे ये हैं: