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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इन्साफी मालूम होती है कि किसी भी माकूल वजहके बिना मुट्ठीभर शान्तिप्रिय और कानूनका पालन करनेवाले निवासियोंको तंग किया जाये।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ७-५-१९०४ और इंडिया ऑफिस: ज्यूडिशियल ऐंड पब्लिक रेकर्ड्स, १२३६।

१४१. केपका प्रवासी अधिनियम


डॉ० ग्रेगरीने केपके प्रवासी-अधिनियमके अमलपर जो रिपोर्ट पेश की है उसका सार, जैसा कि स्टारमें प्रकाशित हुआ है, हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं। वह पढ़ने में एक दिलचस्प चीज है। उसके अनुसार पिछले सालके मई और जून मासोंमें विदेशी प्रवासियोंकी संख्या २,०३३ थी और अक्तूबरसे दिसम्बरतकके तीन महीनों में ४,७१५ थी। ब्रिटिश यात्रियों और विदेशी प्रवासियोंके बीच अनुपात मई और जूनमें २०.२, जुलाईसे सितम्बर के बीच २२.७ और अक्तूबर से दिसम्बर के बीच २५.२ प्रतिशत था और डॉ० ग्रेगरीका खयाल है कि, यह विचार करनेपर ब्रिटिशोंका प्रवास बिलकुल भिन्न प्रकारका है, यह ऊँचा अनुपात भी काफी ऊँचा नहीं ठहरता। रिपोर्टके अनुसार, ४६,९३३ ब्रिटिश यात्रियोंमें से ३,९४७ उपनिवेशके नागरिक बन गये थे, ११,०९३ स्त्रियाँ थीं, ७,२०३ नाबालिग बच्चे थे और ६,९६९ पहले दर्जे के मुसाफिर थे। इस-लिए, यदि केवल वास्तविक ब्रिटिश प्रवासियोंका ही विचार किया जाये तो उनका अनुपात इससे बहुत ऊँचा होगा। इन विदेशियों में से बहुत बड़ी संख्या रूसियों और यहूदियोंकी है जो, रिपोर्ट बताती है, अधिकतर महत्त्वपूर्ण बातोमें असन्तोषप्रद हैं—क्योंकि उनके पास गुजर-बसरकी व्यवस्था नहीं है; वे अल्पशिक्षित हैं, यहूदी भाषा छोड़कर और कोई भाषा न बोल सकते हैं और न समझ ही सकते हैं; काठीके गरीब हैं; अक्सर अपनी आदतों, अपने शरीर और अपने कपड़ोंकी दृष्टिसे गन्दे पाये जाते हैं; और उनकी कही बातें बहुत ही अविश्वसनीय होती हैं। डॉ० ग्रेगरीने यह प्रश्न भी उठाया है कि यदि यहूदी भाषा कोई भाषा है भी, तो उसे यूरो-पीय भाषा समझा जाये या नहीं। उनका सुझाव है कि यह सिद्ध करनेका भार कि वह एक यूरोपीय भाषा है, स्वयं प्रवासियोंपर डाला जाना चाहिए। इस तरह, जैसी हमने अबतक आशा की है, दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीय उपनिवेशी ज्यों ही भारतीयोंसे निपट चुकेंगे त्यों ही यूरोपीय प्रवासियोंके विरुद्ध कार्रवाई शुरू कर देंगे; और जब यूरोपीय विदेशियोंसे निपट चुकेंगे तब, जैसा कि आस्ट्रेलियामें अंग्रेज खनकों के साथ हुआ, गरीब अंग्रेजोंके प्रति विरोध खड़ा किया जायेगा। हमारी दृष्टिसे तो यह सारी भावना ही बुरी है और जहाँ अपराधियों और गम्भीर रोगों से पीड़ित लोगोंके प्रवासपर पाबन्दी लगानेका कुछ औचित्य हो सकता है, वहाँ प्रतिबन्ध लगाने की सत्ता एक ऐसी सत्ता है जिसे बहुत ही नरमीसे साथ काममें लाना चाहिए। हम देखेंगे कि केपकी विधान परिषद डॉ० ग्रेगरीके सुझावोंका कैसा स्वागत करती है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ७-५-१९०४