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१४३. ट्रान्सवालमें परवानोंका मामला


ब्रिटिश भारतीयोंको व्यापारिक परवाने देने सम्बन्धी परीक्षात्मक मुकदमे की सुनवाई हो चुकी और जैसी कि आशा की थी, निर्णय सुरक्षित रखा गया है। दोनों ओर बड़े से बड़े वकील रखे गये थे। ब्रिटिश भारतीयोंकी ओरसे सर्वश्री लियोनार्ड, एसेलेन, ग्रेगरोवस्की और डक्सबर्ग थे; ट्रान्सवाल सरकारकी तरफसे सर्वश्री वार्ड, मैथ्यूज और बर्न्स बेग नियुक्त थे। मुख्य प्रश्न “निवास” शब्दकी व्याख्या करनेका था। ब्रिटिश भारतीयोंका कहना था कि सरकार द्वारा नियत की गई बस्तियों अथवा विशेष गलियोंमें ही सीमित "निवास" में व्यापार शामिल नहीं है-खास तौरसे इसलिए कि कानूनके अनुसार बस्तियों में रहनेकी पाबन्दी केवल सफाईके उद्देश्यसे लगाई गई है। इसके विपरीत, सरकारकी दलील यह थी कि “निवास” में व्यापार भी शामिल है, खास तौरसे इस विनापर कि तैयब बनाम लीड्स' मुकदमे में भूतपूर्व दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यके उच्च न्यायालयने इस शब्दका यही अर्थ किया था। याद रखना चाहिए कि वह फैसला सर्वसम्मत नहीं था। यह भाग्यकी विडम्बना है कि जब भूतपूर्व गणराज्यके उच्च न्यायालय के सामने उस मामलेमें बहस हुई थी तब न्यायाधीशोंके सामने ब्रिटिश सरकारके प्रतिनिधि उपस्थित थे और उन्होंने ब्रिटिश भारतीयोंके कथनका समर्थन करनेकी कोशिश की थी; परन्तु, अब समय बदल गया है और साथ ही ब्रिटिश सरकार भी बदल गई है। अब वह उसी मंचपर है, जिसपर श्री क्रूगरकी सरकार थी। ब्रिटिश सरकारकी माँग है कि मामला खारिज कर दिया जाये और खर्च वादियोंको देना पड़े। भारतीयोंके लिए मामला अत्यन्त महत्त्वका है, असल में जिन्दगी और मौतका है, और यह शुभ है कि वे अपनी ओरसे सबसे बड़े कानून-पण्डितोंको खड़ा करने में समर्थ हो गये हैं। इसलिए, अब यदि उन्हें मुकदमे में हारना ही पड़ा तो उसका कारण सर्वोत्तम कानूनी सलाहका अभाव नहीं होगा। इस समय ट्रान्सवालमें बड़ा अनुकूल अवसर है। विधानका जो प्रश्न भूतपूर्व उच्च न्यायालय के सामने नहीं उठाया जा सका था, उसे अब भारतीयोंकी ओरसे श्री लियोनार्डने निर्भीकताके साथ उठा दिया है। सर रिचर्ड सॉलोमनने खुद स्वीकार किया है कि वे गणराज्यके न्यायाधीशोंके फैसले को समझ नहीं सके। इसलिए भारतीयोंके पक्षमें बहुत कुछ है, और हम आशा करें कि निर्णय ऐसा होगा, जिससे यह दुःखदायी सवाल हमेशा के लिए निपट जायेगा और ऐसे ढंगसे कि ट्रान्सवालके सैकड़ों ब्रिटिश भारतीय व्यापारी फिरसे स्वच्छन्द होकर साँस ले सकेंगे। लेकिन अगर ब्रिटिश न्यायाधीश अपनेको पिछले उच्च न्यायालयके बहुमतके निर्णयसे बँधा हुआ समझें, तो ब्रिटिश भारतीयों को निराशामें भी एक मौका और है; अर्थात् वे ब्रिटिश साम्राज्यकी सर्वोच्च अदालत——सम्राटकी न्याय परिषद (प्रीवी कौन्सिल) में अपील कर सकते हैं। आशा है कि इस तरहका कदम गैर-जरूरी होगा, लेकिन अगर दुर्भाग्यसे अनिवार्य हो गया, तो हमें कोई सन्देह नहीं कि ब्रिटिश भारतीय पीछे न हटकर मामलेको अन्ततक ले जायेंगे।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ७-५-१९०४


१. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १० ।