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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

हुआ कि सरकारको चुनौती देनेके बजाय पहले उनका फर्ज उससे न्याय प्राप्त करना और उन वादोंको पूरा करनेका अनुरोध करना है, जो डाउनिंग स्ट्रीटके अधिकारियोंने किये थे। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि उन्हें व्यापार संघों (चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स) और दूसरी सार्वजनिक संस्थाओंके पास पहुँचना चाहिए, जिन्होंने भारतीय व्यापारियोंके प्रति वैर-वृत्ति अपनाई है; और उन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश करनी चाहिए कि परवाने देनेसे इनकार करके भारतीयोंके साथ अन्याय किया जा रहा है। वे बहुत ही उचित समझौता स्वीकार करने को तैयार थे और इसलिए उन्होंने सुझाव दिया था कि तमाम मौजूदा परवाने अछूते छोड़ दिये जायें, पृथक् बस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके परवाने समय-समयपर नये किये जायें और दूसरे प्राथियोंके मामले पात्रता के आधारपर निपटाये जायें। यह सुझाव अस्वीकार कर दिया गया और पिछले दिसम्बरमें, जब वस्तुतः प्रत्येक भारतीय व्यापारीपर विनाशका खतरा छा गया तब मामला हृदको पहुँच गया। जब किसी समझौतेपर पहुँचने के सभी उपाय समाप्त हो गये तब समाजने यह परीक्षात्मक मुकदमा दायर किया। परिणाम तो और कुछ हो ही नहीं सकता था, हालाँकि इतना कष्ट भोग चुकनेके कारण लोग उसके बारेमें जबरदस्त चिन्तासे ग्रस्त थे। खैर, अन्यायके इस शोकपूर्ण चित्रका एक उज्ज्वल पहलू भी है, और वह यह है कि, ब्रिटिश राज्यमें, द्वेषभाव कितना ही तीव्र क्यों न हो, सर्वोच्च न्यायालयोंके रूपमें सुरक्षाका एक आश्रयस्थान हमेशा उपलब्ध है। परम्परा ऐसी है कि ब्रिटिश न्यायाधीश पूर्वग्रहों अथवा भावनाओंके वशीभूत लगभग होते ही नहीं और छोटेसे-छोटे प्रजाजनको भी, यदि उसके पास पर्याप्त साधन हों और कानूनमें गुंजाइश हो तो, विशुद्ध न्याय मिल सकता है। ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयके न्याया-धीशोंने भूतपूर्व उच्च न्यायालयके निर्णयको रद कर देने में संकोच नहीं किया और सरकारी वकीलके रवैयेके बावजूद उन्होंने फैसला दिया कि १८८५ के कानून ३ में १८८६ में हुए संशोधनके अनु-सार प्रत्येक भारतीयको, जहाँ उसका जी चाहे, व्यापार करनेकी स्वतन्त्रता है। इससे भारतीय परवानेदारोंके सम्बन्धमें सरकारकी सारी सूचनाएँ और सारी कार्रवाइयाँ रद हो जाती हैं। परन्तु अपने देशवासियोंको चेतावनी दे देना हमारा कर्तव्य है कि वे इस सफलतापर खुशीसे बहुत ज्यादा फूल न जायें। कदाचित् इसका इतना ही अर्थ है कि यह एक दूसरे संग्रामका श्रीगणेश है। उनके विरुद्ध देशभर में विरोध खड़ा किया जायेगा और सरकार सर्वोच्च न्यायालयके निर्णयों के प्रभावको विफल करनेके लिए एक विधेयक पेश कर सकती है। इसलिए उन्हें फिर भी काम करना और धीरज तथा दूरदर्शितापूर्ण संयम रखना पड़ेगा। दुर्भाग्यसे सरकार एक चीज है और सर्वोच्च न्यायालय बिलकुल दूसरी चीज है। सरकार सब प्रकारके पूर्वग्रहों और भावनाओंसे प्रभावित होकर उनमें बह जाती है और ट्रान्सवालमें तो वह खुद इतनी कमजोर है कि श्री डंकन के शब्दोंमें, जो "शुद्ध प्रारम्भिक न्याय" है वह भी नहीं कर सकती। लॉर्ड मिलनरके मजबूत शासन और उससे भी मजबूत इरादेके बावजूद, परमश्रेष्ठ भारतीय विरोधी आन्दोलनके आगे दब गये और दुर्बल पक्षकी रक्षा करनेमें असफल रहे। परन्तु परीक्षात्मक मुकदमेके फैसलेने सरकारके लिए १८८५के कानून ३ की शरण लेना असम्भव बना दिया है। अब वह श्री लिटिलटनसे यह नहीं कह सकती कि उपनिवेशियोंकी पुराने नियमको लागू करनेकी माँगका विरोध नहीं किया जा सकता। अब हम जानते हैं कि पुराना कानून भारतीय व्यापारपर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाता, और सरकारपर यह सिद्ध करनेका दुहरा भार है कि भारतीय व्यापारपर कोई विशेष प्रतिबन्ध लगानेके लिए, कैसा भी क्यों न हो, कोई कारण मौजूद है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन १४-५-१९०४