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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


आज्ञा न मानने के साथ भारी दण्ड जुड़ा हुआ है। तब क्या सर मंचरजीने जिस ढंगसे प्रश्न पूछा, वह उचित नहीं था? और फिर, हमारे सहयोगीने सर मंचरजीके मुँहमें वे शब्द भी रख दिये हैं जो उन्होंने कभी कहे ही नहीं। उनके कहने का यह अर्थ कदापि नहीं था कि भारतीय ईस्ट लंदनसे निकाले जानेवाले हैं, परन्तु उन्होंने निश्चयपूर्वक कहा था कि उन्हें बस्तियोंमें चले जानेकी सूचनाएँ मिली हैं। और यह सत्य मात्र है। नगरपालिकाने जिस ढंगकी कार्रवाई अपनाई है, उसे उचित बतानेमें ईस्ट लन्दन डिस्पैच उतना प्रसन्न नहीं है। डिस्पैच के कथनानुसार हकीकत यह है कि ईस्ट लंदन में कुल मिलाकर भारतीयोंकी आवादी छः सौ है, जिनमें से केवल एक सौ नगरमें रहते हैं। हमारा सहयोगी आगे कहता है: “नगरपालिकाका उनपर कोई नियन्त्रण नहीं है।" तो क्या भारतीय नगरपालिकाके नियमोंसे मुक्त हैं? हमने सारे नियम पढ़े हैं और हमें उनमें भारतीयोंको नगरपालिकाके नियमोंसे मुक्त होने की कोई बात नहीं मिली। क्या बारह हजारसे अधिक यूरोपीय आवादीमें रहनेवाले मुट्ठीभर भारतीयोंको हटाने की जरूरत जरा भी है? यह भी याद रखना चाहिए कि ये लोग वहाँ कई वर्षोंसे रह रहे हैं। जहाँतक हम जानते हैं, इन लोगोंके विरुद्ध अस्वच्छताका कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता। बस्ती में चार सौसे अधिक भारतीय रह रहे हैं, यह बात भी ब्रिटिश भारतीयों की स्थितिको मजबूत करती है कि, जो लोग सुख-चैनके पाश्चात्य मानदण्डके अनुसार नहीं रहना चाहते वे अपने आप बस्तीमें रहते हैं। इसलिए यह निष्कर्ष बहुत उचित है कि जो थोड़े-से लोग नगरमें रह रहे हैं वे अच्छी साफ-सुथरी हालतमें रहते हैं। इस तर्कमें ट्रान्सवालके प्लेगको भी शामिल कर लिया गया है, परन्तु जैसा कि हम पिछले अंकोंमें पहले ही बता चुके हैं, भारतीयोंमें बड़ी संख्या में बीमारीके होनेका कारण जोहानिसबर्ग नगरपालिकाकी पूरी-पूरी गफलत है और जोहानिसबर्ग तथा भारतीय वस्तीके बाहर भारतीयोंकी स्थिति अन्य समुदायोंसे किसी भी तरह बुरी नहीं रही है। हमारा सहयोगी स्वीकार करता है कि भारतीय कानूनका पालन करनेवाले हैं। और उसने यह मंजूर करनेकी भी कृपा की है कि "बौद्धिक दृष्टिसे वे सभ्य लोग हैं, और इस नाते उनकी मान-प्रतिष्ठाके बारेमें गम्भीरतापूर्वक शंका नहीं की जा सकती। तब यदि वे सफाईके पाश्चात्य स्तरको नहीं पहुँच पाते तो क्या, आखिरकार, उन्हें, पृथक् बाड़ोंमें खदेड़े बिना सुधारकी ओर झुका देना बहुत कठिन बात है? और क्या केप टाउन, डर्बन और अन्य स्थानोंका अनुभव, जहाँ भारतीयोंने मौका मिलनेपर यूरोपीयोंसे सबक लेने में कसर नहीं रखी है, हमारे सहयोगीकी शंकाओं को गलत साबित नहीं करता? हम यह खयाल किये बिना नहीं रह सकते कि यदि ईस्ट लन्दन डिस्पैच निर्विकार होकर स्थितिका अवलोकन करता, वस्तुस्थितिको सही दृष्टि से देखता और नगरपालिका भारतीयोंको जिस तरह अनावश्यक रूपसे जलील करना चाहती है उसके विरोधमें भारतीय समाजके कार्योंका समर्थन करता, तो वह जिस समाजके हित के लिए प्रकाशित होता है उसकी अधिक अच्छी सेवा करता।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १४-५-१९०४