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१४८. परीक्षात्मक मुकदमेका फैसला[१] '


जोहानिसबर्ग
मई १६, १९०४

निःसन्देह आप परीक्षात्मक मुकदमे में प्रधान न्यायाधीशका दिया हुआ फैसला देख चुके हैं। एक मात्र प्रश्न था “निवास” शब्दकी व्याख्याका जो १८८५ के कानून ३ में आता है। और उसपर प्रधान न्यायाधीशने यह निर्णय दिया कि “निवास” के अन्तर्गत व्यापार-व्यवसायका स्थान नहीं आता। और उनकी इस व्याख्यासे उनके दो साथी न्यायाधीशोंने सहमति प्रकट की हैं। इस प्रकार पन्द्रह वर्षतक कठिन संघर्ष करनेके पश्चात भारतीय स्थिति उचित सिद्ध हुई है और अब भारतीयोंको ट्रान्सवालके किसी भी भाग में व्यापार करनेका अधिकार प्राप्त है। इस सम्बन्ध में. सरकारने अपनी युद्धसे पूर्वकी स्थिति त्याग दी। आप फैसलेमें यह देखेंगे कि प्रधान न्यायाधीशको स्थानीय सरकारके इस कठोर और असंगत रुखके सम्बन्ध में, जिसका समर्थक उपनिवेश-कार्यालय भी था, कुछ बहुत ही कड़ी बातें कहनी पड़ी हैं। आप यह भी देखेंगे कि प्रधान न्यायाधीशकी सम्मतिमें भारतीय व्यापारियोंको ले जाकर पृथक बस्तियोंमें डाल देनेका अर्थ है उन्हें आजीविकाके साधनोंसे वंचित कर देना। यह तो, जैसा उन्होंने कहा, एक हाथसे देकर दूसरेसे छीन लेना ही हुआ।

इस प्रकार ब्रिटिश भारतीय संघकी वे सभी शिकायतें, जो उसने १८८५ के कानून ३ के अमल और पृथक् बस्तियोंकी स्थापनाके सम्बन्धमें की थीं, पूरी तरह उचित सिद्ध हो गई हैं। किन्तु इस सबका परिणाम क्या होगा, यह एक बहुत ही गंभीर प्रश्न है। सामान्यतः भारतीयोंकी स्थिति अब यह होनी चाहिए कि वे कठिनाइयोंका सामना करते जायें और बाकी काम करनेके लिए उपनिवेश कार्यालयपर निर्भर रहें। परन्तु दुर्भाग्यसे यहाँकी सरकार इतनी कमजोर है कि न्याय कर ही नहीं सकती। भारतीयोंको यह जीत बहुत ही महँगी पड़ी है। वे इसका लाभ न भोग पायें, ऐसी आवाज अवश्य ही उठाई जायेगी और उसकी अस्पष्ट प्रतिध्वनि हमें सुनाई भी देने लगी है। और यदि सरकार भारतीयोंसे उनकी इस विजयका फल फिर छीनने के लिए एक विधेयक विधान परिषदसे मंजूर करा लेनेकी उतावली करे तो यह कोई आश्चर्य की बात न होगी।


किन्तु एक बात निश्चित है। पुराना कानून भारतीय व्यापारकी दृष्टिसे भारतीयोंके प्रतिकूल है, इस आधारपर नया कानून बनाना कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। हम अब यह जानते हैं कि पुराने कानूनसे भारतीयोंपर प्रवास और व्यापारके सम्बन्धमें कोई प्रतिबन्ध नहीं लगता। भारतीयोंका यहाँ प्रवेश तो कारगर रूपमें शान्ति-रक्षा अध्यादेशसे रुका है। और यदि भारतीय व्यापारपर प्रतिबन्ध लगाना हो तो साम्राज्यीय उपनिवेशमें एक नया कानून बनाना पड़ेगा। इसका अर्थ यह है कि भारतीयोंपर एक नई निर्योग्यता लगाई जायेगी जो पुराने शासनमें उनपर कानून द्वारा कभी लागू न थी। ऐसी निर्दयतापूर्ण है यह भाग्यकी विडम्बना! लड़ाईसे पहले ब्रिटिश सरकार, तब यद्यपि शासन विदेशी था फिर भी, भारतीयोंको संरक्षण देती थी। अब

  1. यह गांधीजीके एक वक्तव्यका मजमून है जो इंडियामें सम्पादनके बाद “एक संवाददातासे प्राप्त" रूप में प्रकाशित किया गया था। इसकी एक प्रति दादाभाईको भी भेजी गई थी जिन्होंने उसके अंश उपनिवेश मन्त्री और भारत-मन्त्रीके नाम अपने जून ७, १९०४ के पत्र में उद्धृत किये थे। ( सी० ओ० २९१, खण्ड ७९, इंडिविजुअल्सएन)