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१५०. परीक्षात्मक मुकदमा

ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयके मुख्य न्यायाधीशका व्यापक और विशद निर्णय ट्रान्सवाल सरकार और भारतीयों-दोनोंके अध्ययन करनेके लायक है। सरकारके लिए इस कारण कि मुख्य-न्यायाधीशने सिद्ध कर दिया है-जैसा कि इतने अधिकारके साथ और कोई मनुष्य नहीं कर सकता था—कि ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति सरकारका रवैया कितना हृदयहीन और असंगत रहा है। भारतीयोंके लिए इस कारण कि उससे साबित होता है, स्थानीय अधिकारियोंके थोड़ी देरके लिए गुमराह हो जानेपर भी ब्रिटिश संविधान और ब्रिटिश शासनमें कितनी बातें प्रेय हैं। ये अधिकारी-स्वार्थ, दुर्बलता या द्वेष, किसी भी कारणसे क्यों न हो।—सामने आनेवाली विविध परिस्थितियोंपर ठीक-ठीक विचार करने और समान रूपसे न्यायके वितरण करनेमें असमर्थ हैं। विद्वान मुख्य न्यायाधीश चाहते तो प्रश्नके अलग-अलग पहलुओं पर ध्यान न देते। वे सरकारकी भावनाओंका लिहाज रख सकते थे। परन्तु उन्हें ऐसी दया नहीं आई। स्पष्ट है कि, उन्होंने महसूस किया, न्याय और सत्यकी माँग है कि वे साफ-साफ कहें और उस शिकायतपर जो ब्रिटिश भारतीय संघ द्वारा लगातार दुहराई जाती रही है, कानूनी स्वीकृतिकी मुहर लगा दें। शायद उन्होंने यह भी महसूस किया हो कि ट्रान्सवालके कानून-विभागमें ब्रिटिश राष्ट्रके मुख्य प्रतिनिधिकी हैसियतसे उनसे अपेक्षा की जाती है कि सरकारकी अपनाई असंगत स्थितिसे वे अपने-आपको पूरी तरह अलग कर लें।

कानूनकी व्याख्या करते हुए सर जेम्स रोज इन्सने कहा:

यह बिलकुल साफ है कि विधानमण्डलके ध्यानमें उन एशियाइयोंका मामला था जो व्यापार करनेके स्पष्ट हेतुसे बसने आये थे। और अगर उसका इरादा यह होता कि इस प्रकार बसनेवालोंका व्यावसायिक काम-काज पृथक् बस्तियोंकी सीमाओंमें मर्यादित रखा जाये, तो इस आशयका कोई निश्चित विधान अवश्य कर दिया गया होता। क्योंकि, यह मामला यूरोपीय और एशियाई, दोनोंके लिए छोटा नहीं, समान रूपसे बड़े महत्त्वका था। यदि भारतीयोंको इस देशमें बे-रोकटोक आने देने और जहाँ चाहें वहाँ व्यापार करने देनेका मंशा था, तो वे गोरे दूकानदारोंके लिए निहायत जबरदस्त प्रतिद्वन्द्वी हो जानेवाले थे; और यदि इसके विपरीत, उनका व्यापारिक कार्य उन बस्तियोंमें ही सीमित रखा जानेको था, जिनमें वे रहते हैं, जो मुख्य शहरसे बाहर स्थित हैं और जिनमें उनके सजातीय लोग ही रहते हैं, तब तो व्यावहारिक कारणोंसे यही अच्छा होता कि वे व्यापार करते ही नहीं। जबकि कानून उनका व्यापारके प्रयोजनसे देशमें बसनेका हक स्वीकार करता है और पहुँ-चनेपर उनसे रजिस्ट्रीकी फीस वसूल करता है, तब यदि वह ऐसी व्यवस्थाएँ करता है जिनसे उनका व्यापार करना अव्यावहारिक और अलाभदायक हो जाता है, तो वह असंगत होगा। यह तो एक हाथसे देना दूसरेसे ले लेना हो जायेगा।

भारतीयोंने इतने जोरोंसे अपनी बात कभी नहीं कही। अब हमें इस शिकायतका, जिसका सरकारने इतने जोरोंसे खण्डन किया है, समर्थन प्राप्त हो गया है कि पृथक बस्तियाँ व्यापार