के कामके लिए बिलकुल बेकार हैं और उनका उद्देश्य केवल भारतीयोंको भूखों मारकर उपनिवेश से निकाल देना है।
परन्तु असली डंक तो थोड़ा आगे चलकर आता है। “निवास" शब्दकी व्याख्या करनेके बाद विद्वान न्यायाधीश कहते हैं:
किन्तु खरीतोंसे एक बात स्पष्ट है और वह यह कि, ट्रान्सवालके अधिकारी कानूनका जो अर्थ अब करना चाहते हैं वह वही है जिसकी दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यकी सरकार सदा हिमायत किया करती थी और जिसका ब्रिटिश सरकार बराबर विरोध करती रही है। ऐसी हालत में यह बात विलक्षण लगती है कि नया कानून बनाये बिना ट्रान्सवालमें सम्राट कर्मचारी एक ऐसा दावा पेश करें जिसे इंग्लैंडमें सम्राटको सरकार हमेशा कानूनकी पुस्तकके अनुसार नाजायज बताती रही है और जिसका उसने भूतकालमें दृढ़तासे विरोध किया है।
ब्रिटिश अधिकार हो जाने पर इस तरहका रवैया इख्तियार करना और श्री क्रूगरके शासन-कालमें ब्रिटिश सरकारके नामपर जो वचन दिये गये थे उन सबपर पानी फेर देना जाहिर करता है।——और यह हम अत्यन्त आदर के साथ कहते हैं——कि यह ब्रिटिश परम्पराओंका शोचनीय अज्ञान है। या, उससे भी बुरा, उन सब बातोंसे जानबूझकर हटना है जो ब्रिटिश राज्य में अबतक पवित्र मानी गई हैं और जिन्होंने भिन्न-भिन्न भागोंको एक सूत्रमें बाँधकर रखा है। फैसला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और निर्णयसे भारतीय दावेका पूर्ण समर्थन हो जाता है। परन्तु इस परिणामका हमारे ट्रान्सवालवासी देशभाई पूरा लाभ उठा सकें, इसके लिए अब एक बातकी जरूरत है, जो यह है कि, समाजके प्रतिनिधि अपने सदस्योंके जोशको काबू में रखें और व्यापार करनेके अधिकारका सौम्य उपयोग ही करें। यह फल अब, पिछले पन्द्रह सालकी जबरदस्त बाधाओंसे लगातार जूझने के बाद, प्राप्त हुआ है। हम जानते हैं कि इस उपदेशपर अमल करना बहुत कठिन है। हमेशा यह नहीं कहा जा सकता कि परवानेके लिए कौन अर्जी देगा और कौन नहीं, क्योंकि अधिकार सभीको है। परन्तु ऐसी कठिनाइयाँ आनेपर ही किसी समाजके वास्तविक सत्त्वकी परख होती है। अगर लोग इस विजयसे उन्मत्त होकर यत्र-तत्र सर्वत्र व्यापारके परवानोंके लिए प्रार्थनापत्र देने लगें तो बड़ी हानि होगी, और उनके निन्दक लोग अधिक प्रहार करनेके लिए ऐसी स्थितिको हथियार बनाने में देर नहीं लगायेंगे। परिस्थिति नाजुक है, मगर पूरे फलका उपभोग करना है तो नेताओंको उसका सामना करना ही होगा।
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९०४