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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


बातपर कोई ध्यान नहीं दिया कि अबतक भारतीयोंने बहुत आत्मसंयमसे काम लिया है, क्योंकि उन्होंने उपनिवेशकी नागरिक सूची में रखे जाने के अधिकारका उपयोग नहीं किया, बल्कि अधिकारको काममें लाये बिना अधिकारकी प्राप्ति-मात्रसे ही संतोष कर लिया है। आयुक्तोंने इस तथ्य से भी अपनी आँखें बन्द रखी हैं कि भारत में लाखों लोग नगरपालिका-मताधिकारका प्रयोग कर रहे हैं। यदि यह दलील भी दी जाये कि भारत में भारतीयों को कोई राजनीतिक मताधिकार प्राप्त नहीं है——जिसे हम चुनौती देते हैं।-तो भी उक्त तथ्यके बारेमें तो तर्ककी गुंजाइश है ही नहीं। सारे भारत में जहाँ-तहाँ सैकड़ों नगरपालिकाएँ हैं, जिनमें से अधिक तरकी शासन व्यवस्था भारतीयोंके ही हाथमें है। यदि वे "रंगदार व्यक्तियों" और "असभ्य जातियों" की व्याख्या करनेके बाद अपने विधेयकके निर्माण में इन शब्दों का प्रयोग न करते तो यह आश्चर्यकी ही बात होती। वे नगर परिषदों को ऐसे उपनियम बनानेका अधिकार देना चाहते हैं जिनके अनुसार रंगदार व्यक्तियों द्वारा पक्की पटरियों और रिक्शागाड़ियोंका व्यवहार वर्जित होगा और वे "रंगदार व्यक्ति" के लिए नगर परिषद द्वारा निर्धारित घंटोंमें घर से बाहर निकलना भी जुर्म करार देंगे। विधेयक में नगरपालिकाओं को ऐसे उपनियम बनानेका अधिकार देनेकी बात भी है जिनसे असभ्य जातियों" के व्यक्तियोंके पंजीकरणकी प्रणाली कायम हो जायेगी और चूँकि धारामें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे यह प्रकट हो कि वह केवल घरेलू नौकरोंपर ही लागू होती है, इसलिए उसका अर्थ यह है कि उन भारतीय कारकुनों और इसी तरहके दूसरे कर्मचारियों को भी अपना पंजीकरण कराना पड़ेगा, जो गिरमिटिया भारतीयोंकी सन्तान हैं। जो वतनी काम नहीं करना चाहते और जिन्हें गैरहाजिर होनेपर ढूँढ़ना बड़ा मुश्किल होता है, उनकी रजिस्ट्री करना एक बात है; और जो भारतीय विनम्र, परिश्रमी और प्रति-ष्ठित हैं, जिनका एकमात्र कसूर यह है कि वे हृदसे ज्यादा काम करते हैं, उनसे यह आशा रखना बिलकुल दूसरी बात है, और वह अत्यन्त अपमानजनक है, कि वे अपना पंजीकरण करायेंगे और अपने साथ पंजीकरण के बिल्ले लिये फिरेंगे। अन्तमें, आयुक्तोंने नगर-निगमकी तमाम बिक्रियोंपर नगर परिषदोंकी मंजूरी जरूरी कर दी है और नगर परिषदोंको यह अधिकार दे दिया है कि वे कोई कारण बताये बिना किसी भी ऐसी विक्रीको स्वीकार या अस्वीकार कर दें। इससे अंगुली पकड़कर पहुँचा पकड़नेका अवसर उपलब्ध हो गया है। इस प्रकार जो बात श्री लिटि-लटनको सीधी भेजनेपर शायद मंजूर होनी संभव न थी वहीं, यदि सरकारने विधेयक मंजूर कर लिया तो, उनके सम्मुख इस रूप में प्रस्तुत की जायेगी कि उनके पास उसे स्वीकार करनेके सिवा कोई दूसरा चारा ही नहीं हो सकता। ऐसी हालत में हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि विधेयक अत्यन्त प्रतिगामी ढंगका है और यदि सरकार उसको अपनाना चाहती है तो ब्रिटिश भारतीयोंको अपनी स्वतन्त्रतामें कटौतीके इस नये प्रयत्नको विफल बनानेके लिए बहुत बड़ी कोशिश करनी पड़ेगी।

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इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९०४