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१५३. पूर्वी ट्रान्सवालके पहरेदार

पूर्वी ट्रान्सवाल पहरेदार संघ (ईस्ट रैंड विजिलैंट्स) के सज्जनों की सतर्कतामें कोई भूल-चूक नहीं है। परीक्षात्मक मुकदमेका फैसला जिस कागजपर था उसपर अभी स्याही भी नहीं सूखी है कि हमारे इन मित्रोंने उसके विरुद्ध हथियार उठा लिये हैं और वे सरकारसे तुरन्त ऐसा कानून बनानेका अनुरोध कर रहे हैं, जिससे सरकारको एशियाई-विरोधी प्रस्तावोंके द्वारा प्रेषित उनके विचार अमल में आ जायें। उनकी नीति संक्षेपमें इन शब्दों में प्रकट है: "बस्तियोंके सिवा अन्यत्र न एशियाई रहें, न उनका व्यापार।" वे नेटालके व्यापार-संघसे भी आग्रह कर रहे हैं कि वे अपनी बैठक बुलायें और सोचें कि उस खतरेके विरुद्ध क्या कदम उठाये जायें जो, उनके मतानुसार, सभीके सामने सामान्यरूपसे मौजूद है। हमारा उनसे उचित व्यवहार या ब्रिटिश न्यायके नामपर अपील करना व्यर्थ है, क्योंकि उनका दोनोंमें ही विश्वास नहीं है। उन्हें एशियाइयोंकी संगति नहीं, उनका स्थान चाहिए और जबतक वे यह फल प्राप्त नहीं कर लेते तबतक उपाय और साधन कैसे हैं, यह विचार नहीं करेंगे। अगर खबरें सही हैं तो उनको एक ऐसा राजस्व अधिकारी मिल गया है जो उनके इशारोंपर नाचने के लिए काफी तैयार है, क्योंकि समाचार मिले हैं कि उसने एशियाइयोंको परवाने देने से इनकार कर दिया है और मामला अधिकारियोंको विचारार्थ भेज दिया है। ऐसे रवैये को देखते हुए हमने ऊपर जो चेतावनी दी है उसे ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंको हृदयंगम कर लेना चाहिए। यह जानना दिलचस्प होगा कि सरकार अब क्या करना चाहती है। अबतक वह अपने व्यवहारमें भूतपूर्वं उच्च न्यायालयकी व्याख्याके अनुसार १८८५ के कानून ३ की आड़ लेती रही है। अब चूंकि यह ढाल उसके हाथोंसे छूट चुकी है, इसलिए क्या वह ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंके मुँहका कौर छीननेका कोई और बहाना ढूँढ़ेगी? लॉर्ड मिलनरने श्री लिटिलटनको आश्वासन दिया है कि पुराने कानून हर प्रकारसे भारतीयोंकी भावनाओंका लिहाज रखकर लागू किये जा रहे हैं और इसमें पहलेके मुकाबले आधी भी कठोरता नहीं बरती जा रही। निस्सन्देह, जैसा कि हम कह चुके हैं, यह बात तथ्योंसे सिद्ध नहीं है। परन्तु अब लॉर्ड महोदय क्या कहेंगे? पुराने कानूनसे तो भारतीय व्यापारपर कोई बन्धन लगता ही नहीं! तब वे क्या नये बंधन तैयार करेंगे? नहीं; किसी अन्य कारणसे नहीं तो लॉर्ड महोदयकी राजनीतिज्ञताके कारण ही सही, हम सच्चाईके साथ आशा करते हैं, वे ऐसा नहीं करेंगे।

[ अंग्रेजी से ]
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९०४