१५४. क्रूगर्सडॉर्प और ब्रिटिश भारतीय
क्रूगर्सडॉर्प नगर परिषदने सर्वसम्मति से अपनी पूर्वगामी परिषद के एशियाई बाजारके स्थान-सम्बन्धी चुनावको व्यवहारतः रद करनेका फैसला किया है। उसका खयाल है कि वह स्थान केवल भारतीय व्यापारियोंके लिए चुना गया था और एक अन्य बस्ती बसाई जानेवाली थी, जिसमें फेरीवाले और दूसरे भारतीय रहते। क्या अज्ञान इससे अधिक गहरा हो सकता है? फिर भी लॉर्ड मिलनर और उनके सलाहकारोंने भारतीयोंका भाग्य व्यवहारतः ऐसे सज्जनोंके हाथों में सौंप दिया है जिन्हें ब्रिटिश भारतीयोंकी परवाह नहीं के बराबर है और उतनी ही परवाह स्वयं अपनी कार्रवाइयोंकी भी है। वर्तमान नगर परिषद नामजद किये हुए भूतपूर्व निकायके निश्चयको रद करना चाहती है और सरकारसे दूसरे स्थानके चुनावका अनुरोध कर रही है। अब चूंकि परवाने देनेका सवाल कमसे कम फिलहाल तो खत्म कर दिया गया है, इसलिए यह मामला बड़े महत्त्वका है। साथ ही, इससे यह प्रकट होता है कि क्रूगर्सडॉर्प नगर-परिषद के सदस्योंके हाथों भारतीय हितोंकी कैसी गति होने की संभावना है। और हमें बड़ा अन्देशा है कि जो बात क्रूगर्सडॉर्पपर लागू होती है वही शेष ट्रान्सवालपर भी होती है। महापौरने कृपापूर्वक यह सुझाव दिया था कि जो लोग इस समय तम्बुओंमें रह रहे हैं, उन्हें कड़ाके की सर्दीके कारण अपने-अपने घरोंको लौट आने दिया जाये, या नगर परिषद पुरानी बस्तीपर तुरन्त कब्जा कर ले और लोगोंको नये बाजार या नयी बस्तीमें स्थान ग्रहण करने दे। दुःख यही है कि महापौरमें इतना साहस नहीं था कि वे उन लोगोंके प्रति मानवोचित व्यवहारकी वकालत जारी रखते और उनके साथ न्याय करनेका आग्रह करते, जो कष्ट पा रहे हैं इसलिए नहीं कि यह सार्वजनिक स्वास्थ्यका मामला है और उसको खतरा होनेके कारण इसकी जरूरत है, बल्कि इसलिए कि क्रूगर्सडॉर्प नगर-परिषदके सदस्योंके दिलोंमें गहरा रंग-विद्वेष और व्यापारिक ईर्ष्या जमी हुई है।
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९०४