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१५५. एशियाई व्यापारी-आयोग

जोहानिसबर्ग के पत्रोंमें इस आशयकी एक संक्षिप्त सूचना निकली है कि परीक्षात्मक मुकदमेके परिणामके कारण इस आयोगकी बैठकें स्थगित कर दी गई हैं। अधिकारियों द्वारा लापरवाहीसे रुपया खर्च करनेका यह एक और उदाहरण है। जो बात उन्हें पहले करनी चाहिए थी, वह अब हालातसे मजबूर होकर सैकड़ों पौंड बरबाद करने के बाद की गई है। ब्रिटिश भारतीय संघने ज्यों ही परीक्षात्मक मुकदमा दायर किया गया त्यों ही सरकारसे आयोगकी बैठकें मामलेका फैसला होनेतक स्थगित रखनेकी प्रार्थना की थी; परन्तु वह किसी भी दलीलसे कायल न की जा सकी। सरकारको जो जवाब देना था वह कुल इतना ही था कि चूँकि आयोग विधान परिषद द्वारा नियुक्त किया हुआ है, इसलिए सरकार उसके मामलेमें दखल नहीं दे सकती। परन्तु अब चूंकि परीक्षात्मक मुकदमेका निर्णय सरकार के विरुद्ध हो गया है, इसलिए वह एकाएक अपने-आपको आयोगकी बैठकें स्थगित करनेकी सत्तासे सज्जित पाती है। यह तो लाल फीताशाहीकी अति-जैसी है। संघकी प्रार्थना बहुत ही संयत और तर्कसंगत थी और उसके पीछे खयाल था कि उससे सरकारकी सहायता होगी और खर्च बचेगा। फिर भी चूंकि उसका अर्थ यह लगाया जा सकता था कि सरकार ब्रिटिश भारतीय संघकी इच्छाओंके आगे झुक गई, इसलिए उसको माननेसे साफ इनकार कर दिया गया। अगर कोई सदस्य विधान परिषदके अगले अधिवेशनमें यह प्रश्न पूछे तो बड़ी दिलचस्प बात होगी कि, परीक्षात्मक मुकदमा दायर हो जानेपर भी आयोग क्यों कायम रखा गया था; अथवा, क्या यह बात थी कि सरकारको भारतीयोंपर विजय प्राप्तिका पूरा भरोसा था?

{{[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९०४}}