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सम्पूर्ण गांधी वाङमय


होगी हम उसका स्वागत करेंगे और यदि "निहित स्वार्थ" शब्दोंकी व्याख्या न्यायोचित की जाती है तो जो लोग ट्रान्सवालमें इस समय कारोबार कर रहे हैं उन्हें चिन्ता करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु दुर्भाग्यसे भूतकालको देखते हुए भविष्यके बारेमें आशा नहीं बँधती। दुर्भाग्य-ग्रस्त एशियाई व्यापारी आयोगने स्पष्ट कर दिया है कि "निहित स्वार्थी" से सरकारका मतलब क्या है। वह उन्हीं ब्रिटिश भारतीयोंके व्यापारको मान्यता देगी, जो “लड़ाई छिड़ने के समय और उसके ठीक पहले" ट्रान्सवालमें बस्तियोंके बाहर वस्तुतः व्यापार कर रहे थे। हम जानते हैं कि इसका अर्थ क्या है। और, हम यह भी जानते हैं कि इस अभिव्यक्तिकी आयुक्तोंने क्या व्याख्या की थी। इससे केवल उन दर्जनभर एशियाइयोंकी रक्षा होगी, जो लड़ाईके समय अपना समूचा व्यापार छोड़कर डरके कारण इस देशसे चले गये थे। और यदि “निहित स्वार्थ" शब्दोंकी व्याख्या यही की जायेगी तो ट्रान्सवालके मुख्य न्यायाधीशके अर्थपूर्ण शब्दों में इसका मतलब यह होगा कि वह जो कुछ एक हाथसे देगी, जैसा वह दावा करती है, उसको फिर दूसरे हाथ से छीन लेगी। परमश्रेष्ठने स्वयं यह कहकर खतरेका पूर्वाभास दे दिया है कि सरकार ब्रिटिश भारतीयोंके व्यापारकी रक्षा केवल मौजूदा परवानेदारोंके जीवनकालतक ही करेगी। जो आदमी व्यापार करता है वह जानता है कि इसका मतलब क्या है। तमाम व्यापारिक लेन-देन में निश्चितता बहुत आवश्यक होती है और कानून बताता है कि जो भारतीय व्यापारी माल उधार मांगते हैं, उनके व्यापारकी अवधि बिलकुल सुनिश्चित नहीं है; और उनकी मृत्यु होते ही उनका कारोबार एकाएक बन्द हो जायेगा। फिर मानव-जीवन बड़ा अस्थिर होता है; तब क्या ऐसे गोरे व्यापारी मिलेंगे, जो यह सब जानते हुए भी भारतीय व्यापारियोंको कुछ भी माल उधार दे दें? यह समझना मुश्किल है कि परमश्रेष्ठ भारतीयोंको न्यायमात्रका जो दान करना चाहते हैं उसके साथ इस प्रकारके सिद्धान्तका मेल कैसे बैठ सकता है। इसलिए हमें न्याय करने के सरकारी इरादोंका स्वागत इच्छा न होनेपर भी कुछ संयम और सावधानीसे करना पड़ता है। परमश्रेष्ठने गोरोंके व्यापारपर भारतीयोंके व्यापारके असरके बारेमें जो राय बनाई है उससे भी सान्त्वनाका कोई आधार नहीं मिलता। परमश्रेष्ठने बड़ी संख्या में एशियाइयोंके प्रवेशकी कात कही है। हम उसके विरुद्ध आदरके साथ अपनी आपत्ति प्रकट करते हैं। वे अवश्य ही अच्छी तरह जानते हैं कि शान्ति-रक्षा अध्यादेश ब्रिटिश भारतीयोंतकको उपनिवेश से बाहर रखने के साधनके रूपमें कितनी सख्ती से काम में लाया जा रहा है। जब चीनी मजदूर-आयात अध्यादेश विधान परिषद में पास हो रहा था तब सरकारको यह सिद्ध करना परम आवश्यक हो गया था कि शान्ति-रक्षा अध्यादेशका प्रयोग प्रामाणिक एशियाई शरणार्थियोंके सिवा और सबको बाहर रखने के लिए कारगर तरीकेपर किया जा रहा है। मुख्य परवाना-सचिवने एक प्रतिवेदन तैयार किया था, जिससे प्रकट होता था कि किसी भी नवागन्तुकको उपनिवेश में प्रवेश नहीं करने दिया जाता और शरणार्थियोंतकको बहुत ही कम परवाने दिये जाते हैं। इसलिए अब परमश्रेष्ठका बड़ी संख्या में एशियाइयों के प्रवेशकी बात करना बहुत कठोर और असंगत मालूम होता है। परमश्रेष्ठने कहा कि,

जिन लोगोंने अपनी आँखोंसे देख लिया है वे ही यह अनुभव रह सकते हैं—इंग्लैंडकी जैसी सर्व आबोहवामें नहीं-और गोरोंसे आगे बढ़कर उन्हें व्यापार और व्यवसायके अनेक क्षेत्रोंसे खदेड़ सकते हैं।

करते हैं कि भारतीय यहाँ और गोरोंसे आगे बढ़कर यदि यह कथन सत्य होता तो बड़ा हानिकारक होता, क्योंकि यह लेफ्टिनेंट गवर्नर महोदय की जबान से निकला है। परन्तु क्या यह सत्य है? क्या व्यापार अथवा व्यवसायका