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ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय


कोई भी विभाग ऐसा है जिसमें से एशियाइयोंने गोरोंको खदेड़ा हो? व्यापारकी दो ही ऐसी शाखाएँ हैं जिनमें दोनोंके बीच कोई स्पर्धा है। वे हैं, फेरी और छोटी दूकानदारी। अब फेरीके बारेमें सत्य यह है कि गोरे, विशेष वर्गके सिवा, इस कष्टप्रद कामको करनेके लिए बिलकुल तैयार नहीं होते। जैसा कि हमारे सहयोगी स्टारने बताया है, गोरे फेरीवालोंने अनेक बार प्रयत्न किये हैं; परन्तु हर बार छोड़ दिये——भारतीयोंकी स्पर्धाके कारण नहीं, बल्कि इसलिए कि वे इसकी परवाह ही नहीं करते। परन्तु गोरोंका एक वर्ग है, जो इस कामको सफलता-पूर्वक और भारतीयों के मुकाबले में कर रहा है। हमारा आशय सीरिया-निवासियों और रूसी यहूदियोंसे है। वे परिश्रमी हैं और भारी बोझा रखकर दूर-दूरतक चलनेमें आपत्ति नहीं करते और हम उन्हें यह व्यापार सफलतापूर्वक करते हुए देखते हैं। इसके अतिरिक्त, यह नहीं भूलना चाहिए कि शहरोंके गिर्द फेरी लगाकर भारतीय एक बहुत महसूस की जानेवाली आवश्यकता की पूर्ति करते हैं, और दुहरी भलाई करते हैं। वे गृहस्थोंके दरवाजोंपर ही साग-भाजी और दूसरी चीजें पहुँचा देते हैं, और उनसे गोरे थोक व्यापारी आसानीसे मुनाफा भी कमा सकते हैं। चूँकि वे इस प्रकार लाभदायक सिद्ध हुए हैं, इसी कारण उन्हें थोक यूरोपीय कोठियोंसे हमेशा माल मिला है। अगर वे भारतीयोंको माल उधार देना स्थगित कर दें तो उनका दक्षिण आफ्रिकामें फेरीवालोंके रूपमें रहना बिलकुल असम्भव हो जायेगा। और हमने जो कुछ फेरीवालोंके सम्बन्धमें कहा है वही छोटे दुकानदारोंपर लागू होता है, और वह भी ज्यादा प्रबलतासे। वस्तुतः छोटे भारतीय दूकानदार जोहानिसबर्ग, प्रिटोरिया और कुछ दूसरे शहरोंके अलावा अन्यत्र कहीं नहीं मिलते। और छोटे यूरोपीय दुकानदारों तथा भारतीय दूकानदारोंके बीच तीव्र स्पर्धा है, जिसमें भारतीयोंके मुकाबले यूरोपीय हमेशा मुनाफे में रहते हैं। परन्तु यदि इन दो व्यवसाइयोंको छोड़ दिया जाये तो इन दोनों जातियोंमें कोई स्पर्धा नहीं रह जाती। उदाहरणार्थ, केप उपनिवेशमें, जहाँ स्पर्धा सर्वथा मुक्त है और भारतीयोंको लगभग सभी अधिकार प्राप्त हैं, भारतीय व्यापारी किसी गोरे दुकानदारको नहीं खदेड़ सके हैं। और न नेटालमें ही, जहाँ इतनी बड़ी भारतीय आबादी है, वे ऐसा कर सके हैं। इस-लिए परमश्रेष्ठके प्रति उचित आदर व्यक्त करते हुए हम कहेंगे, उनका यह कथन कि भारतीय गोरोंको व्यापारसे खदेड़ते हैं, अत्यन्त सीमित दायरेको छोड़कर, उचित नहीं मालूम होता। और जहाँ भारतीय किसी गोरेको खदेड़ता दिखाई देता है वहाँ भी वह उसे अपने-आपसे एक सीढ़ी ऊँचा ही उठा देता है, क्योंकि वह बीचका व्यापारी बन जाता है और गोरेको फुटकर व्यापारीके बजाय थोक व्यवसायी बना देता है।

परन्तु परमश्रेष्ठका भाषण इतना ही बताता है कि अभी कितना काम करना बाकी है, जिसके बाद ट्रान्सवालके भारतीय इस स्थितिमें होंगे कि जो व्यापार परीक्षात्मक मुकदमेके निर्णयके अनुसार अधिकारके तौरपर उनका होना चाहिए उसपर वे कुछ कब्जा बनाये रखें।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २८-५-१९०४