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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 4.pdf/२४५

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परीक्षात्मक मुकदमेपर "ईस्ट रेंड एक्सप्रेस" २१५


एक शिक्षा भी मिलती है। और वह है—नगरपालिकाओं और पुलिसके तमाम प्रयत्नोंके बावजूद अन्यत्र भी कदाचित् ऐसी घटनाएँ हो सकती हैं। ऐसी हालतोंमें व्यवस्था कायम रखनेका भार स्थानीय अधिकारियोंपर रखना उनके प्रति न्याय नहीं होगा और, इसलिए, हमें विश्वास है कि सरकार जनताकी इच्छाओंके, अनुकूल कानून बनानेमें विलम्ब न करेगी।

ऐसे लेख लिखनेका अर्थ है या तो खाली धमकी देना या अपना अभिप्राय गंभीरता से बताना। यदि पहली बात सही हो तो उस अवस्थामें हमारे सहयोगीने भारतीयोंको सही रूपमें नहीं समझा है। किन्तु यदि दूसरी बात सही हो तो ईस्ट रैंडमें भारतीयोंकी दूकानें खुलनेपर हम ईस्ट रैंडवासी गोरोंके हाथों एक-दो भारतीयोंके फाँसीपर चढ़ा दिये जानेका स्वागत करेंगे। हम साम्राज्य-हितके खयालके अलावा भारतीयोंके हितके लिए यह चाहेंगे। इससे यह समस्त प्रश्न उभर आयेगा और भारतीय भी यह जान सकेंगे कि जो ब्रिटिश झंडा अबतक सामान्य स्वतन्त्रताकी पूरी रक्षा करता रहा है वह अब भी काफी है या नहीं। इससे यह भी जाहिर हो जायेगा कि क्या भारतीय इतने कायर हैं जो ऐसी कार्रवाइयोंसे लड़खड़ा जायेंगे और इस देशसे खिसक जायेंगे। इसलिए जहाँतक भारतीयोंका सम्बन्ध है, हमें इसमें कोई शक नहीं है कि यदि ईस्ट रैंडका गोरा-समाज हमारे सहयोगीकी सलाह मान लेगा तो भारतीयोंकी स्थिति अत्यन्त मजबूत हो जायेगी। परन्तु हम उसे ऐसी ही एक घटनाकी[] याद दिला दें, जो कुछ वर्ष पहले उमतलीमें हुई थी। वहाँ एक भारतीयको व्यापारका परवाना मिला था। इसपर शहरके सब यूरोपीय चढ़ आये। उन्होंने भारतीयको धमकी दी कि यदि वह दूकान बन्द न करेगा तो वे उसकी दूकानको जला देंगे और खुद उससे भयंकर बदला लेंगे। सौभाग्यवश उसने, अकेला होनेपर भी, भीड़का सामना किया और दूकान बन्द करने या भाग जानेसे इनकार कर दिया। इतनेमें ही पुलिसकी मदद आ पहुँची। इसपर भीड़ अपनेको लाचार पाकर वहाँसे हट गई और वह भारतीय उससे छूटकर शान्तिपूर्वक अपना व्यापार जारी रख सका। हम अपने सहयोगीके विचारके लिए यह घटना पेश कर रहे हैं और उससे एक बार फिर पूछते हैं कि एक प्रतिष्ठित पत्रका कर्तव्य क्या है——जिस समाजके लिए वह प्रकाशित होता है उसमें कानून-भंगकी उत्तेजना फैलाना या उसको व्यवस्था और सद्व्यवहारकी शिक्षा देना?

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २८-५-१९०४
  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ६१।