१५९. श्री डैन टेलर
जिस समय श्री मेक-लार्टीका प्रस्ताव स्वीकृत हुआ उसी समय श्री डैन टेलरने एक बहुत ही जोरदार भाषण दिया, जिससे सभी लोग चकित रह गये। उन्होंने सूचना दी कि वे भारतीयोंके बजाय चीनियों को नेटालमें लाने का पूरा प्रयत्न करेंगे। १८९६ के श्री डैन टेलर[१]' आजके श्री डैन टेलरसे बिलकुल भिन्न थे। वे उस समय सभी प्रकारके रंगदार मजदूरोंके विरुद्ध प्रधान आन्दोलनकारी थे। वे बाग-मालिकोंके विरुद्ध जहर उगलते थे और जो लोग तभी भारतसे आये थे उनको नेटालके किनारे उतरने के हकका दावा करनेपर समुद्रमें फेंक देनेके लिए कृतसंकल्प थे। ये सब इतिहासकी बातें हैं।[२] परन्तु समयके साथ ढंग बदलते हैं और उसी तरह आदमी भी। और अब श्री जैन टेलरका खयाल है कि उपनिवेशकी खुश-हाली के लिए किसी-न-किसी रंगदार मजदूर वर्गकी नितान्त आवश्यकता है। अगर वे अपना प्रस्ताव स्वीकृत करा सकें तो हम अवश्य सुझाव देंगे कि भारतीय समाज एक प्रस्ताव स्वीकार करके उनको धन्यवाद दे। वे भारतीय मजदूरोंके विरुद्ध इसलिए हैं कि वे जानते हैं, भारत-सरकार भारतीयोंसे गुलामोंकी तरह उतना काम नहीं लेने देगी जितनेसे उनको सन्तोष हो सके। हम भारतीय मजदूरोंको गिरमिटिया बनानेका विरोध इसलिए करते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि जिस रूपमें वे इस उपनिवेशमें लाये जाते हैं, वह स्वर्गीय सर विलियम विल्सन हंटरके शब्दोंमें, खतरनाक रूपसे दासताके निकट है। हम ३ पौंड सालाना व्यक्तिकरको कभी मंजूर नहीं कर सकते। यह कानून तो भारतीयोंसे उनकी आजादीका मूल्य वसूल करता है-उस आजादीका, जो स्वर्गीय श्री एस्कम्बके शब्दोंमें, उसे तब दी जाती है जब वह तुच्छ-सी मजदूरीके बदले में अपने जीवनके सर्वोत्तम पाँच वर्ष उपनिवेशको दे चुकता है। इसलिए यद्यपि हमारे दृष्टिकोण भिन्न हैं, फिर भी हमें अपने-आपको श्री डैन टेलरसे पूर्णतः सहमत पाकर बड़ा संतोष होता है और हम सचमुच उस दिनका स्वागत करेंगे जब मौजूदा हालतों में भारतीयोंको गिरमिटिया मजदूरोंके रूपमें लाना बन्द कर दिया जायेगा। साथ ही, इससे उपनिवेशियोंकी आँखें खुल जायेंगी और वे देख लेंगे कि स्वतन्त्र भारतीयोंकी उपस्थिति से भी उपनिवेशको समृद्धिमें कितनी वास्तविक वृद्धि हुई है। भारतीयोंको थोड़ी-सी मिल्क मुतलक जमीन मिल जानेपर कोसना तो बड़ा आसान है; मगर जो सज्जन इसके विरुद्ध चिल्लाते हैं वे यह बिलकुल भूल जाते हैं कि जो जमीन भारतीयोंके हाथोंमें आ जाती है उसका चप्पा-चप्पा सचमुच बागके रूपमें परिणत हो जाता है। हमारी समझ में नहीं आता कि जिस जमीनको यूरोपीय छूना भी नहीं चाहते उसको यदि भारतीय उपयोगी बना देते हैं तो उसमें आपत्तिकी क्या बात हो सकती है। मगर हाथ-कंगनको आरसी क्या? अगर श्री डैन टेलर भारतीयोंका उपनिवेश-प्रवास बन्द कराने में सफल हो जाते हैं, तो जो बात हम एक रायके तौरपर कहते रहे हैं वह भारत से गिरमिटिया मजदूरोंके प्रवासकी मनाहीके बाद पूर्ण सार्थक हो जायेगी।
इंडियन ओपिनियन, २८-५-१९०४